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अत्र॑ पितरो मादयध्वं यथाभा॒गमावृ॑षायध्वम्। अमी॑मदन्त पि॒तरो॑ यथाभा॒गमावृ॑षायिषत ॥३१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अत्र॑। पि॒त॒रः॒। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। वृ॒षा॒य॒ध्व॒म्। वृ॒षा॒य॒ध्व॒मिति॑ वृषऽयध्वम्। अमी॑मदन्त। पि॒तरः॑। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। अ॒वृ॒षा॒यि॒ष॒त॒ ॥३१॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोगों को धर्मात्मा, ज्ञानी, विद्वान् पुरुषों का कैसा सत्कार करना योग्य है, सो अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पितरः) उत्तम विद्या वा उत्तम शिक्षाओं और विद्यादान से पालन करनेवाले विद्वान् लोगो ! (अत्र) हमारे सत्कारयुक्त व्यवहार अथवा स्थान में (यथाभागम्) यथायोग्य पदार्थों के विभाग को (आवृषायध्वम्) अच्छी प्रकार जैसे कि आनन्द देनेवाले बैल अपनी घास को चरते हैं, वैसे पाओ और (मादयध्वम्) आनन्दित भी हो, तथा आप हम लोगों के जिस प्रकार (यथाभागम्) यथायोग्य अपनी-अपनी बुद्धि के अनुकूल गुण विभाग को प्राप्त हों, वैसे (आवृषायिषत) विद्या और धर्म की शिक्षा करनेवाले हो और (अमीमदन्त) सब को आनन्द दो ॥३१॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्य लोग माता और पिता आदि धार्मिक सज्जन विद्वानों को समीप आये हुए देखकर उनकी सेवा करें। प्रार्थनापूर्वक वाक्य कहें कि हे पितरो ! आप लोगों का आना हमारे उत्तम भाग्य से होता है, सो आओ और जो अपने व्यवहार में यथायोग्य और भोग आसन आदि पदार्थों को हम देते हैं, उनको स्वीकार करके सुख को प्राप्त हो तथा जो-जो आप के प्रिय पदार्थ हमारे लाने योग्य हों, उस-उस की आज्ञा दीजिये, क्योंकि सत्कार को प्राप्त होकर आप प्रश्नोत्तर विधान से हम लोगों को स्थूल और सूक्ष्म विद्या वा धर्म के उपदेश से यथावत् वृद्धियुक्त कीजिये। आप से वृद्धि को प्राप्त हुए हम लोग अच्छे-अच्छे कामों को करके तथा औरों से अच्छे काम कराके सब प्राणियों का सुख और विद्या की उन्नति नित्य करें ॥३१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्धार्मिका ज्ञानिनो विद्वांसः कथं सत्कर्तव्या इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अत्र) अस्माकं सत्कारसंयुक्ते व्यवहारे स्थाने वा (पितरः) पान्ति पालयन्ति सद्विद्याशिक्षाभ्यां ये ते तत्संबुद्धौ (मादयध्वम्) हर्षयध्वम् (यथाभागम्) भागमनतिक्रम्य कुर्वन्तीति यथाभागम् (आ) समन्तात् (वृषायध्वम्) आनन्दसेक्तारो वृषा इवाचरत। कर्त्तुः क्यङ् सलोपश्च (अष्टा०३.१.११) अनेन क्यङ् प्रत्ययः। (अमीमदन्त) आनन्दयतास्मान् मोदयत, विद्यां ज्ञापयत वा (पितरः) विद्वांसो विद्यादानेन रक्षकाः (यथाभागम्) भागं भागं प्रतीति यथाभागम्। अत्र वीप्सार्थे प्रतिः। (आ) आभिमुख्यतया (अवृषायिषत) विद्याधर्मशिक्षया हर्षकारका भवत। लोडर्थे लुङ् ॥ अयं मन्त्रः (शत०२.४.२.१९-२३) व्याख्यातः ॥३१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पितरो ! यूयमत्र यथाभागमावृषायध्वम्। मादयध्वमस्मान् यथाभागमावृषायिषतामीमदन्तास्मान् हर्षयत ॥३१॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञापयति−मातापित्रादीन् विदुषोऽध्यापकान् धार्मिकान् पितॄन् समीपस्थानागच्छतश्च दृष्ट्वैवं वाच्यं सेवनं च कार्य्यम्−हे अस्मत्पितरो ! यूयं स्वागतमागच्छतास्मद्विषये यथायोग्यान् भोगानासनादींश्चेमानस्मद्दत्तान् स्वीकृत्य सुखयत यद्यदाऽऽवश्यकं युष्माकमिष्टं वस्त्वस्माभिरानेतुं योग्यं तदाज्ञापयत। एवमत्राऽस्माभिः सत्कृताः सन्तो भवन्तः प्रश्नोत्तरविधानेनाऽस्मान् स्थूलसूक्ष्मविद्याधर्मोपदेशेन यथावद् वर्द्धयन्तु। युष्मद्वर्द्धिता वयं नित्यं सत्क्रियाः कृत्वाऽन्यैः कारयित्वा च सर्वेषां प्राणिनां सुखविद्योन्नतीः नित्यं कुर्य्यामेति ॥३१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराज्ञा अशी आहे की, माणसांनी माता, पिता व धार्मिक सज्जन विद्वानांची सेवा करावी व त्यांना विनंती करावी, हे पितरांनो ! आमच्या उत्तम दैवामुळे तुमचे आगमन होणे म्हणजे आमचे अहोभाग्य होय. त्यासाठी आसन व भोग्य पदार्थ वगैरे देऊन आम्ही तुमचा योग्य सत्कार करतो. त्यामुळे तुम्हाला सुख मिळेल. तुम्हाला जे पदार्थ आवडतात ते देण्याचा प्रयत्न करू तशी आज्ञा करा, कारण तुमचा सत्कार झाल्यावर तुम्ही प्रश्नोत्तररूपाने स्थूल व सूक्ष्म विद्या व धर्म यांची वाढ व्हावी, असा उपदेश करा. अशा प्रकारे उन्नती झाल्यानंतर आम्ही चांगले कार्य करू व इतरांनाही चांगले कार्य करण्यास उद्युक्त करू. याप्रमाणे सर्वांना सुखी करून सदैव विद्येची वृद्धी करू.