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अ॒ग्नये॑ कव्य॒वाह॑नाय॒ स्वाहा॒ सोमा॑य पितृ॒मते॒ स्वाहा॑। अप॑हता॒ऽअसु॑रा॒ रक्षा॑सि वेदि॒षदः॑ ॥२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नये॑। क॒व्य॒वाह॑ना॒येति॑ कव्य॒ऽवाह॑नाय। स्वाहा॑। सोमा॑य। पि॒तृ॒मत॒ इति॑ पितृ॒ऽमते॑। स्वाहा॑। अप॑हता॒ इत्यप॑ऽहताः। असु॑राः। रक्षा॑सि। वे॒दि॒षदः॑। वे॒दि॒सद॑ इति॑ वेदि॒ऽषदः॑ ॥२९॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब संसारी अग्नि और चन्द्रमा कैसे गुणवाले हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि (कव्यवाहनाय) विद्वानों को हित देने, कर्मों की प्राप्ति कराने तथा (अग्नये) सब पदार्थों को अपने आप एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँचानेवाले भौतिक अग्नि का ग्रहण करके सुख के लिये (स्वाहा) वेदवाणी से (पितृमते) जिस में वसन्त आदि ऋतु पालने के हेतु होने से पितर संयुक्त होते हैं, (सोमाय) जिससे ऐश्वर्यों को प्राप्त होते हैं, उस सोमलता को लेके (स्वाहा) अपने पदार्थों को धारण करनेवाले धर्म से युक्त विधान करके जो (वेदिषदः) इस पृथिवी में रमण करनेवाले (रक्षांसि) औरों को दुःखदायी स्वार्थीजन तथा (असुराः) दुष्ट स्वभाववाले मूर्ख हैं, उनको (अपहताः) विनष्ट कर देना चाहिये ॥२९॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों से युक्ति के साथ शिल्पविद्या में संयुक्त किया हुआ यह अग्नि उनके लिये उत्तम-उत्तम कार्यों की प्राप्ति करनेवाला होता है। मनुष्यों को यह यत्न नित्य करना चाहिये कि जिससे संसार के उपकार से सब सुख और पृथिवी के दुष्टजन वा दोषों की निवृत्ति हो जाये ॥२९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ भौतिकावग्नीषोमौ कीदृशगुणौ वर्तेते इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नये) अङ्गति सर्वान् पदार्थान् दग्ध्वा देशान्तरे प्रापयति तस्मै (कव्यवाहनाय) कुवन्ति शब्दयन्ति सर्वा विद्या ये ते कवयः क्रान्तदर्शनाः क्रान्तप्रज्ञाश्च तेभ्यो हितानि कर्माणि कव्यानि, तानि यो वहति प्रापयति तस्मै (स्वाहा) सुष्ठु आह यस्यां सा (सोमाय) सुवन्त्यैश्वर्य्याणि प्राप्नुवन्ति यस्मिन् संसारे तस्मै (पितृमते) पितर ऋतवो नित्ययुक्ता विद्यन्ते यस्मिन् तस्मै। अत्र नित्ययोगे मतुप्। ऋतवः पितरः (शत०२.४.२.२४) (स्वाहा) स्वं दधात्यनया सा स्वाहा क्रिया (अपहताः) अपहिंसिताः। (असुराः) अविद्वांसो दुष्टस्वभावाः प्राणिनः (रक्षांसि) परपीडकाः, स्वार्थिनः (वेदिषदः) ये वेद्यां पृथिव्यां सीदन्ति ते। यावती वेदिस्तावती पृथिवी (शत०१.२.५.७) अयं मन्त्रः (शत०२.४.२.१२-१३) व्याख्यातः ॥२९॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यैः कव्यवाहनायाग्नये स्वाहा पितृमहे सोमाय स्वाहा विधाय ये वेदिषदो रक्षांस्यसुराश्च ते नित्यमपहताः कार्य्याः ॥२९॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्युक्त्या संयोजितोऽयमग्निः शिल्पिनां कार्य्याणि वहति, येन संसारस्योपकारेण सामयिकं सुखं पृथिवीस्थानां दुष्टानां दोषाणां च निवृत्तिः स्यादयं प्रयत्नो नित्यं विधेय इति ॥२९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी कौशल्याने शिल्पविद्येत संयुक्त केलेल्या अग्नीमुळे उत्तम कार्य सिद्ध होते, त्यासाठी माणसांनी सतत प्रयत्नशील राहिले पाहिजे. ज्यामुळे जगावर उपकार होईल व सुख प्राप्त होईल आणि दुष्ट लोकांचे व दोषांचे निवारण होईल.