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अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तम॑चारिषं॒ तद॑शकं॒ तन्मे॑ऽराधी॒दम॒हं यऽए॒वाऽस्मि॒ सो᳖ऽस्मि ॥२८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। व्र॒त॒प॒त॒ऽइति॑ व्रतऽपते। व्र॒तम्। अ॒चा॒रि॒ष॒म्। तत्। अ॒श॒क॒म्। तत्। मे॒। अ॒रा॒धि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। यः। ए॒व। अस्मि॑। सः। अ॒स्मि॒ ॥२८॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब जो सत्याचरण से सुख होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (व्रतपते) न्याययुक्त नियत कर्म के पालन करने हारे (अग्ने) सत्यस्वरूप परमेश्वर ! आपने जो कृपा करके (मे) मेरे लिये (व्रतम्) सत्यलक्षण आदि प्रसिद्ध नियमों से युक्त सत्याचरण व्रत को (अराधि) अच्छी प्रकार सिद्ध किया है, (तत्) उस अपने आचरण करने योग्य सत्य नियम को (अशकम्) जिस प्रकार मैं करने को समर्थ होऊँ (अचारिषम्) अर्थात् उसका आचरण अच्छी प्रकार कर सकूँ, वैसा मुझ को कीजिये (यः) जो मैंने उत्तम वा अधम कर्म किया है, (तदेवाहम्) उसी को भोगता हूँ, अब भी जो मैं जैसा करनेवाला (अस्मि) हूँ, वैसे कर्म के फल भोगनेवाला (अस्मि) होता हूँ ॥२८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को यही निश्चय करना चाहिये कि मैं अब जैसा कर्म करता हूँ, वैसा ही परमेश्वर की व्यवस्था से फल भोगता हूँ और भोगूँगा। सब प्राणी अपने कर्म से विरुद्ध फल को कभी नहीं प्राप्त होते, इससे सुख भोगने के लिये धर्मयुक्त कर्म ही करना चाहिये कि जिससे कभी दुःख नहीं हो ॥२८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ यत्सत्याचरणेन सुखं भवेत् तदुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्ने) सत्यस्वरूपेश्वर ! (व्रतपते) व्रतं नियतं यन्न्याय्यं कर्म तत्पतिस्तत्संबुद्धौ (व्रतम्) सत्यलक्षणम् (अचारिषम्) चरितवान् (तत्) पूर्वोक्तम् (अशकम्) शक्तवान् (तत्) मया चरितुं योग्यम् (मे) मम (अराधि) संसाधितम् (इदम्) प्रत्यक्षमाचरितुमहं मनुष्यः (यः) यादृशकर्मकारी (एव) निश्चयार्थे (अस्मि) वर्त्ते (सः) तादृशकर्मभोजी (अस्मि) भवामि ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.९.३.२२-२३) व्याख्यातः ॥२८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे व्रतपतेऽग्ने ! भवता कृपया मदर्थं यद् व्रतमराधि, तदहमशकमचारिषम्। यन्मयाऽराधि तदेवाहं भुञ्जे, योऽहं यादृशकर्मकार्य्यस्मि सोऽहं तादृशफलभोग्यस्मि भवामि ॥२८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्येणेदं निश्चेतव्यं मयेदानीं यादृशं कर्म क्रियते तादृशमेवैश्वरव्यवस्थया फलं भुज्यते भोक्ष्यते च। नहि कश्चिदपि जीवः स्वकर्मविरुद्धं फलमधिकं न्यूनं वा प्राप्तुं शक्नोति। तस्मात् सुखभोगाय धर्म्याण्येव कर्माणि कार्य्याणि, यतो नैव कदाचिद् दुःखानि स्युरिति ॥२८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे निश्चित जाणावे की मी जसे कर्म करतो तसे फळ परमेश्वरी व्यवस्थेप्रमाणे भोगतो व पुढेही भोगेन. सर्व प्राण्यांना त्यांच्या कर्माच्या विरुद्ध फळ कधीच मिळत नाही. तेव्हा सुख प्राप्त व्हावे यासाठी धर्मयुक्त कर्मच केले पाहिजे. ज्यामुळे कधीच दुःख होणार नाही.