वांछित मन्त्र चुनें

सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳ शि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो᳕ यद्विलि॑ष्टम् ॥२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। वर्च॑सा। पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳕। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥२४॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:24


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त यज्ञ से हम लोग किस-किस पदार्थ को प्राप्त होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग पुरुषार्थी होकर (वर्चसा) जिस में सब पदार्थ प्रकाशित होते हैं, उस वेद का पढ़ना वा (पयसा) जिससे पदार्थों को जानते हैं, उस ज्ञान (मनसा) जिससे सब व्यवहार विचारे जाते हैं, उस अन्तःकरण (शिवेन) सब सुख और (तनूभिः) जिन में विपुल सुख प्राप्त होते हैं, उन शरीरों के साथ (रायः) श्रेष्ठ विद्या और चक्रवर्त्तिराज्य आदि धनों को (समगन्महि) अच्छी प्रकार प्राप्त हों सो (सुदत्रः) अच्छी प्रकार सुख देने और (त्वष्टा) दुःखों तथा प्रलय के समय सब पदार्थों को सूक्ष्म करनेवाला ईश्वर कृपा करके हमारे लिये (रायः) उक्त विद्या आदि पदार्थों को (संविदधातु) अच्छी प्रकार विधान करे और हमारे (तन्वः) शरीर को (यत्) जितनी (विलिष्टम्) व्यवहारों की सिद्धि करने की परिपूर्णता है, उसे (समनुमार्ष्टु) अच्छी प्रकार निरन्तर शुद्ध करे ॥२४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सब कामना परिपूर्ण करनेवाले परमेश्वर की आज्ञा पालन करके और अच्छी प्रकार पुरुषार्थ से विद्या का अध्ययन, विज्ञान, शरीर का बल, मन की शुद्धि, कल्याण की सिद्धि तथा उत्तम से उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति सदैव करनी चाहिये। इस सम्पूर्ण यज्ञ की धारणा वा उन्नति से सब सुखों को प्राप्त होके औरों को सुख प्राप्त कराना चाहिये तथा सब व्यवहार और पदार्थों को नित्य शुद्ध करना चाहिये ॥२४॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

तेन यज्ञेन वयं किं किं प्राप्नुम इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सम्) सम्यगर्थे (वर्चसा) वर्चन्ते दीप्यन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् वेदाध्ययने तेन (पयसा) पयन्ते विजानन्ति सर्वान् पदार्थान् येन ज्ञानेन तेन (सम्) सन्धानार्थे (तनूभिः) तन्वते सुखानि कर्माणि च यासु ताभिः (अगन्महि) प्राप्नुमः। गमधातोर्लुङि उत्तमबहुवचने। मन्त्रे घसह्वरणश० (अष्टा०२.४.८०) अनेन च्लेर्लुक्। म्वोश्च (अष्टा०८.२.६५) अनेन मकारस्य नकारादेशः। अत्र लडर्थे लुङ् (मनसा) मन्यन्ते ज्ञायन्ते सर्वे व्यवहारा येनान्तःकरणेन तेन (सम्) मिश्रीभावे (शिवेन) सर्वसुखनिमित्तेन (त्वष्टा) त्वक्षति तनूकरोति दुःखानि प्रलये सर्वान् पदार्थान् छिनत्ति वा स जगदीश्वरः (सुदत्रः) सुष्ठु सुखं ददातीति सः (विदधातु) विधानं करोतु (रायः) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यश्रियादीनि धनानि (अनु) पश्चादर्थे (मार्ष्टु) शोधयतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) यावत् (विलिष्टम्) परिपूर्णम्। अत्र विरुद्धार्थे विशब्दः ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.९.३.६) व्याख्यातः ॥२४॥

पदार्थान्वयभाषाः - वयं यस्य कृपया वर्च्चसा पयसा मनसा शिवेन तनूभिश्च सह रायः समगन्महि। सुदत्रस्त्वष्टेश्वरः कृपयाऽस्मभ्यं रायः संविदधातु यदस्माकं तन्वो विलिष्टं तत्समनुमार्ष्टु ॥२४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वकामप्रदस्येश्वरस्याज्ञापालनसम्यक्पुरुषार्थाभ्यां विद्याध्ययनं, विज्ञानं, शरीरबलं, मनःशुद्धिः, कल्याणसिद्धिः, सर्वोत्तमश्रीप्राप्तिश्च सदैव कार्य्या। तथा सर्वे व्यवहाराः पदार्थाश्च नित्यं शुद्धा भावनीयाः ॥२४॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्व कामना पूर्ण करणाऱ्या ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन केले पाहिजे व चांगल्या प्रकारे पुरुषार्थ करून विद्येचे अध्ययन, विज्ञान, शारीरिक सामर्थ्य, मनःशुद्धी, कल्याणाची प्राप्ती करून घेऊन उत्तम लक्ष्मी मिळविली पाहिजे. याप्रमाणे उपरोक्त यज्ञ करावा व उन्नती करून सर्व सुख प्राप्त करून घ्यावे. तसेच इतरांनाही सुखी करावे. सर्व पदार्थ व सर्व व्यवहार नेहमी शुद्ध ठेवावेत.