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अङ्गा॑न्या॒त्मन् भि॒षजा॒ तद॒श्विना॒त्मान॒मङ्गैः॒ सम॑धा॒त् सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य रू॒पꣳ श॒तमा॑न॒मायु॑श्च॒न्द्रेण॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ दधा॑नाः ॥९३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अङ्गा॑नि। आ॒त्मन्। भि॒षजा॑। तत्। अ॒श्विना॑। आ॒त्मान॑म्। अङ्गैः॑। सम्। अ॒धा॒त्। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। श॒तमा॑न॒मिति॑ श॒तऽमा॑नम्। आयुः॑। च॒न्द्रे॑ण। ज्योतिः॑। अ॒मृत॑म्। दधा॑नाः ॥९३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:93


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (भिषजा) उत्तम वैद्य के समान रोगरहित (अश्विना) सिद्ध साधक दो विद्वान् जैसे (सरस्वती) योगयुक्त स्त्री (आत्मन्) अपने आत्मा में स्थित हुई (अङ्गानि) योग अङ्गों का अनुष्ठान करके (आत्मानम्) अपने आत्मा को (समधात्) समाधान करती है, वैसे ही (अङ्गैः) योगाङ्गों से जो (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्य का (रूपम्) रूप है, (तत्) उस का समाधान करें। जैसे योग को (दधानाः) धारण करते हुए जन (शतमानम्) सौ वर्ष पर्यन्त (आयुः) जीवन को धारण करते हैं, वैसे (चन्द्रेण) आनन्द से (अमृतम्) अविनाशी (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा का धारण करो ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रोगी लोग उत्तम वैद्य को प्राप्त हो, औषध और पथ्य का सेवन करके, रोगरहित होकर आनन्दित होते हैं, वैसे योग को जानने की इच्छा करनेवाले योगी लोग इस को प्राप्त हो, योग के अङ्गों का अनुष्ठान कर और अविद्यादि क्लेशों से दूर होके निरन्तर सुखी होते हैं ॥९३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अङ्गानि) योगाङ्गानि (आत्मन्) आत्मनि (भिषजा) सद्वैद्यवदरोगौ (तत्) (अश्विना) सिद्धसाधकौ (आत्मानम्) (अङ्गैः) योगाङ्गैः (सम्) (अधात्) समादधाति (सरस्वती) योगिनी स्त्री (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (रूपम्) (शतमानम्) शतमसंख्यं मानं यस्य तत् (आयुः) जीवनम् (चन्द्रेण) आनन्देन (ज्योतिः) प्रकाशम् (अमृतम्) (दधानाः) धरन्तः ॥९३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! भिषजाऽश्विना सिद्धसाधकौ विद्वांसौ यथा सरस्वत्यात्मन् स्थिरा सत्यङ्गानि योगाङ्गान्यनुष्ठायात्मानं समधात्, तथैवाङ्गैर्यदिन्द्रस्य रूपमस्ति, तत् संदध्याताम्। यथा योगं दधानाः शतमानमायुर्धरन्ति, तथा चन्द्रेणऽमृतं ज्योतिर्दध्यात् ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रोगिणः सद्वैद्यं प्राप्यौषधं पथ्यं च सेवित्वा नीरोगा भूत्वाऽऽनन्दन्ति, तथा योगजिज्ञासवो योगिन इममवाप्य योगाङ्गान्यनुष्ठाय निष्क्लेशा भूत्वा सततं सुखिनो भवन्ति ॥९३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे रोगी उत्तम वैद्याकडून औषध घेऊन पथ्यसेवन करतात व रोगरहित होऊन आनंदी बनतात. तसे योगजिज्ञासू लोक योगांगाचे अनुष्ठान करून अविद्या इत्यादी क्लेश दूर करून सदैव सुखी होतात.