आ॒त्मन्नु॒पस्थे॒ न वृक॑स्य॒ लोम॒ मुखे॒ श्मश्रू॑णि॒ न व्या॑घ्रलो॒म। केशा॒ न शी॒र्षन् यश॑से श्रि॒यै शिखा॑ सि॒ꣳहस्य॒ लोम॒ त्विषि॑रिन्द्रि॒याणि॑ ॥९२ ॥
आ॒त्मन्। उ॒पस्थ॒ऽइत्यु॒पस्थे॑। न। वृक॑स्य। लोम॑। मुखे॑। श्मश्रू॑णि। न। व्या॒घ्र॒लो॒मेति॑ व्याघ्रऽलो॒म। केशाः॑। न। शी॒र्षन्। यश॑से। श्रि॒यै। शिखा॑। सि॒ꣳहस्य॑। लोम॑। त्विषिः॑। इ॒न्द्रि॒याणि॑ ॥९२ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(आत्मन्) आत्मनि (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (न) इव (वृकस्य) यो वृश्चति छिनत्ति तस्य (लोम) (मुखे) (श्मश्रूणि) (न) इव (व्याघ्रलोम) व्याघ्रस्य लोम व्याघ्रलोम (केशाः) (न) इव (शीर्षन्) शिरसि (यशसे) (श्रियै) (शिखा) (सिंहस्य) (लोम) (त्विषिः) दीप्तिः (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि ॥९२ ॥