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सीसे॑न॒ तन्त्रं॒ मन॑सा मनी॒षिण॑ऽऊर्णासू॒त्रेण॑ क॒वयो॑ वयन्ति। अ॒श्विना॑ य॒ज्ञꣳ स॑वि॒ता सर॑स्व॒तीन्द्र॑स्य रू॒पं वरु॑णो भिष॒ज्यन् ॥८० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सीसे॑न। तन्त्र॑म्। मन॑सा। म॒नी॒षिणः॑। ऊ॒र्णा॒सू॒त्रेणेत्यू॑र्णाऽसू॒त्रेण॑। क॒वयः॑। व॒य॒न्ति॒। अ॒श्विना॑। य॒ज्ञम्। स॒वि॒ता। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन् ॥८० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:80


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वानों के तुल्य अन्यों को भी आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (कवयः) विद्वान् (मनीषिणः) बुद्धिमान् लोग (सीसेन) सीसे के पात्र के समान कोमल (ऊर्णासूत्रेण) ऊन के सूत्र से कम्बल के तुल्य प्रयोजनसाधक (मनसा) अन्तःकरण से (तन्त्रम्) कुटुम्ब के धारण के समान यन्त्रकलाओं को (वयन्ति) रचते हैं, जैसे (सविता) अनेक विद्या-व्यवहारों में प्रेरणा करनेहारा पुरुष और (सरस्वती) उत्तम विद्यायुक्त स्त्री तथा (अश्विना) विद्याओं में व्याप्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे दो पुरुष (यज्ञम्) संगति=मेल करने योग्य व्यवहार को करते हैं, जैसे (भिषज्यन्) चिकित्सा की इच्छा करता हुआ (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य के (रूपम्) स्वरूप का विधान करता है, वैसे तुम भी किया करो ॥८० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग अनेक धातु और साधन विशेषों से वस्त्रादि को बना के अपने कुटुम्ब का पालन करते हैं तथा पदार्थों के मेलरूप यज्ञ को कर पथ्य ओषधिरूप पदार्थों को देके रोगों से छुड़ाते और शिल्प-क्रियाओं से प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं, वैसे अन्य लोग भी किया करें ॥८० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वद्वदन्यैराचरणीयमित्याह ॥

अन्वय:

(सीसेन) सीसकधातुपात्रेणेव (तन्त्रम्) कुटुम्बधारणमिव तन्त्रकलानिर्माणम् (मनसा) अन्तःकरणेन (मनीषिणः) मेधाविनः (ऊर्णासूत्रेण) ऊर्णाकम्बलेनेव (कवयः) विद्वांसः (वयन्ति) निर्मिमते (अश्विना) विद्याव्याप्तावध्यापकोपदेशकौ (यज्ञम्) सङ्गन्तुमर्हं व्यवहारम् (सविता) विद्याव्यवहारेषु प्रेरकः (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता स्त्री (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (रूपम्) स्वरूपम् (वरुणः) श्रेष्ठः (भिषज्यन्) चिकित्सुः सन् ॥८० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा कवयो मनीषिणः सीसेनोर्णासूत्रेण मनसा तन्त्रं वयन्ति, यथा सविता सरस्वत्यश्विना च यज्ञं कुरुतो यथा भिषज्यन् वरुण इन्द्रस्य रूपं विदधाति, तथा यूयमप्याचरत ॥८० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसोऽनेकैर्धातुभिः साधनविशेषैर्वस्त्रादीनि निर्माय कुटुम्बं पालयन्ति, यज्ञं च कृत्वौषधानि च दत्त्वाऽरोगयन्ति, शिल्पक्रियाभिः प्रयोजनानि साध्नुवन्ति, तथाऽन्यैरप्यनुष्ठेयम् ॥८० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक अनेक धातू व अनेक साधनांनी वस्रे तयार करून आपल्या कुटुंबाचे पालन करतात, पदार्थांचा मेळ करून औषध देऊन रोगांपासून सुटका करतात आणि शिल्प क्रियांच्या प्रयोजनांना सिद्ध करतात. त्याप्रमाणेच इतरांनीही करावे.