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दृष्ट्वा प॑रि॒स्रुतो॒ रस॑ꣳ शु॒क्रेण॑ शु॒क्रं व्य॑पिब॒त् पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑ ॥७९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दृ॒ष्ट्वा। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒स्रुतः॑। रस॑म्। शु॒क्रेण॑। शु॒क्रम्। वि। अ॒पि॒ब॒त्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:79


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसा जन बल बढ़ा सकता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (परिस्रुतः) सब ओर से प्राप्त (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी राजा आदि जन (ऋतेन) यथार्थ व्यवहार से (सत्यम्) वर्त्तमान उत्तम ओषधियों में उत्पन्न हुए रस को (दृष्ट्वा) विचारपूर्वक देख के (शुक्रेण) शुद्ध भाव से (शुक्रम्) शीघ्र सुख करनेवाले (पयः) पान करने योग्य (सोमम्) महौषधि के रस को तथा (रसम्) विद्या के आनन्दरूप रस को (व्यपिबत्) विशेष करके पीता वा ग्रहण करता है, वह (अन्धसः) शुद्ध अन्नादि के प्रापक (विपानम्) विशेष पान से युक्त (शुक्रम्) वीर्यवाले (इन्द्रियम्) विद्वान् ने सेवे हुए इन्द्रिय को और (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष के (इदम्) इस (पयः) अच्छे रसवाले (अमृतम्) मृत्युकारक रोग के निवारक (मधु) मधुरादि गुणयुक्त और (इन्द्रियम्) ईश्वर के बनाये हुए धन को प्राप्त होवे ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - जो वैद्यक शास्त्र की रीति से उत्तम ओषधियों के रसों को बना, उचित समय जितना चाहिये उतना पीवे, वह रोगों से पृथक् होके शरीर और आत्मा के बल के बढ़ाने को समर्थ होता है ॥७९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कीदृग्जनो बलमुन्नेतुं शक्नोतीत्याह ॥

अन्वय:

(दृष्ट्वा) पर्यालोच्य (परिस्रुतः) सर्वतः प्राप्तः (रसम्) विद्यानन्दम् (शुक्रेण) शुद्धेन भावेन (शुक्रम्) शीघ्रं सुखकरम् (वि) (अपिबत्) पिबेत् (पयः) पातुमर्हम् (सोमम्) महौषधिरसम् (प्रजापतिः) प्रजायाः स्वामी (ऋतेन) यथार्थेन (सत्यम्) सतीष्वोषधीषु भवम् (इन्द्रियम्) इन्द्रेण जुष्टम् (विपानम्) विशिष्टेन पानेन युक्तम् (शुक्रम्) वीर्यवत् (अन्धसः) संस्कृतस्यान्नादेः (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (इन्द्रियम्) इन्द्रेणेश्वरेण सृष्टम् (इदम्) (पयः) सुरसम् (अमृतम्) मृत्युनिमित्तरोगनिवारकम् (मधु) ज्ञातं सत् ॥७९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यः परिस्रुतः प्रजापतिर्ऋतेन सत्यं दृष्ट्वा शुक्रेण शुक्रं पयः सोमं रसं व्यपिबत्, सोऽन्धसः प्रापकं विपानं शुक्रमिन्द्रियमिन्द्रस्येदं पयोऽमृतं मध्विन्द्रियञ्च प्राप्नुयात् ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - यो वैद्यकशास्त्ररीत्योत्तमानोषधीरसान्निर्माय यथाकालं यथायोग्यं पिबेत्, स रोगेभ्यः पृथग्भूत्वा शरीरात्मबलं वर्द्धयितुं शक्नुयात् ॥७९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो वैद्यकशास्रानुसार उत्तम औषधांचे रस बनवून योग्य वेळी जेवढे आवश्यक असेल तेवढेच घेतो तो रोगापासून मुक्त होतो आणि शरीर व आत्मा यांचे बल वाढविण्यास समर्थ होतो.