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सोम॑म॒द्भ्यो व्य॑पिब॒च्छन्द॑सा ह॒ꣳसः शु॑चि॒षत्। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑ ॥७४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोम॑म्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। वि। अ॒पि॒ब॒त्। छन्द॑सा। ह॒ꣳसः। शु॒चि॒षत्। शु॒चि॒सदिति॑ शुचि॒ऽसत्। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:74


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (शुचिषत्) पवित्र विद्वानों में बैठता है (हंसः) दुःख का नाशक विवेकी जन (छन्दसा) स्वच्छन्दता क साथ (अद्भ्यः) उत्तम संस्कारयुक्त जलों से (सोमम्) सोमलतादि महौषधियों के सार रस को (व्यपिबत्) अच्छे प्रकार पीता है, सो (ऋतेन) सत्य वेदविज्ञान से (अन्धसः) उत्तम संस्कार किये हुए अन्न के दोषनिवर्तक (शुक्रम्) शुद्धि करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षा से युक्त (सत्यम्) परमेश्वरादि सत्य पदार्थों में उत्तम (इन्द्रियम्) विज्ञान रूप (इन्द्रस्य) योगविद्या से उत्पन्न हुए परम ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेहारे (इदम्) इस प्रत्यक्ष प्रतीति के आश्रय (पयः) उत्तम ज्ञान रसवाले (अमृतम्) मोक्ष (मधु) विद्यायुक्त (इन्द्रियम्) जीव ने सेवन किये हुए सुख को प्राप्त होने को योग्य होता है, वही अखिल आनन्द को पाता है ॥७४ ॥
भावार्थभाषाः - जो युक्ताहार-विहार करनेहारे वेदों को पढ़, योगाभ्यास कर, अविद्यादि क्लेशों को छुड़ा, योग की सिद्धियों को प्राप्त हो और उनके अभिमान को भी छोड़ के कैवल्य को प्राप्त होते हैं, वे ब्रह्मानन्द का भोग करते हैं ॥७४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सोमम्) सोमलतादिमहौषधिसारम् (अद्भ्यः) सुसंस्कृतेभ्यो जलेभ्यः (वि) (अपिबत्) (छन्दसा) स्वच्छन्दतया (हंसः) यो हन्ति दुःखानि सः (शुचिषत्) यः पवित्रेषु विद्वत्सु सीदति सः (ऋतेन) सत्येन वेदविज्ञानेन (सत्यम्) सत्सु परमेश्वरादिपदार्थेषु साधु (इन्द्रियम्) प्रज्ञानम् (विपानम्) विविधरक्षान्वितम् (शुक्रम्) शुद्धिकरम् (अन्धसः) सुसंस्कृतस्यान्नस्य (इन्द्रस्य) योगजन्यस्य परमैश्वर्यस्य (इन्द्रियम्) जीवेन जुष्टम् (इदम्) प्रत्यक्षप्रत्ययालम्बम् (पयः) उत्तमरसम् (अमृतम्) मोक्षम् (मधु) मधुविद्यासमन्वितम् ॥७४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यः शुचिषद्धंसो विवेकी जनश्छन्दसाऽद्भ्यः सोमं व्यपिबत्, स ऋतेनाऽन्धसो दोषनिवर्तकं शुक्रं विपानं सत्यमिन्द्रियमिन्द्रस्य प्रापकमिदं पयोऽमृतं मध्विन्द्रियं चाप्तुमर्हति, स एवाखिलानन्दं प्राप्नोति ॥७४ ॥
भावार्थभाषाः - ये युक्ताहारविहारा वेदानधीत्य योगमभ्यस्याऽविद्यादिक्लेशान्निवर्त्य योगसिद्धीः प्राप्य तदभिमानमपि विहाय कैवल्यमाप्नुवन्ति, ते ब्रह्मानन्दम्भुञ्जते ॥७४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे युक्त आहार-विहार करून वेदांचे अध्ययन करतात ते योगाभ्यास करून अविद्या इत्यादी क्लेशांना दूर करतात आणि योगसिद्धी प्राप्त करतात. अहंकाराला त्याग करून कैवल्य प्राप्त करून ब्रह्मानंद भोगतात.