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इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ऽअस्त्व॒द्य ये पूर्वो॑सो॒ यऽउप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नꣳ सु॑वृ॒जना॑सु वि॒क्षु ॥६८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृभ्यः॑ नमः॑। अ॒स्तु॒। अ॒द्य। ये। पूर्वा॑सः। ये। उप॑रासः। ई॒युः। ये। पार्थि॑वे। रज॑सि। आ। निष॑त्ताः। निस॑त्ता॒ इति॒ निऽस॑त्ताः। ये। वा॒। नू॒नम्। सु॒वृ॒जना॒स्विति॑ सुऽवृ॒जना॑सु। वि॒क्षु ॥६८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:68


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो पितर लोग (पूर्वासः) हम से विद्या वा अवस्था में वृद्ध हैं, (ये) जो (उपरासः) वानप्रस्थ वा संन्यासाश्रम को प्राप्त होके गृहाश्रम के विषयभोग से उदासीनचित्त हुए (ईयुः) प्राप्त हों, (ये) जो (पार्थिवे) पृथिवी पर विदित (रजसि) लोक में (आ, निषत्ताः) निवास किये हुए (वा) अथवा (ये) जो (नूनम्) निश्चय कर के (सुवृजनासु) अच्छी गतिवाली (विक्षु) प्रजाओं में प्रयत्न करते हैं, उन (पितृभ्यः) पितरों के लिये (अद्य) आज (इदम्) यह (नमः) सुसंस्कृत अन्न (अस्तु) प्राप्त हो ॥६८ ॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में जो प्रजा के शोधनेवाले हमसे श्रेष्ठ विरक्ताश्रम अर्थात् संन्यासाश्रम को प्राप्त पिता आदि हैं, वे पुत्रादि मनुष्यों को सदा सेवने योग्य हैं, जो ऐसा न करें तो कितनी हानि हो ॥६८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इदम्) प्रत्यक्षम् (पितृभ्यः) जनकादिभ्यः (नमः) सुसंस्कृतमन्नम् (अस्तु) (अद्य) इदानीम् (ये) (पूर्वासः) अस्मत्तो वृद्धाः (ये) (उपरासः) वानप्रस्थसंन्यासाश्रमाप्ता गृहाश्रमविषयभोगेभ्य उपरताः (ईयुः) प्राप्नुयुः (ये) (पार्थिवे) पृथिव्यां विदिते (रजसि) लोके (आ) (निषत्ताः) कृतनिवासाः (ये) (वा) (नूनम्) निश्चितम् (सुवृजनासु) शोभना वृजना गतयो यासां तासु (विक्षु) प्रजासु ॥६८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये पितरः पूर्वासो य उपरास ईयुर्ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता वा नूनं ये सुवृजनासु विक्षु प्रयतन्ते, तेभ्यः पितृभ्योऽद्येदं नमोऽस्तु ॥६८ ॥
भावार्थभाषाः - अस्मिन् संसारे ये प्रजाशोधका अस्मत्तो वरा विरक्ताश्रमं प्राप्ताः पित्रादयस्सन्ति, ते पुत्रादिभिर्मनुष्यैः सदा सेवनीया नोचेत् कियती हानिः ॥६८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात आपल्यापेक्षाही श्रेष्ठ व विरक्त, दोष दूर करणारे, शुद्धी करणारे सन्यासी पिता असतात त्यांचा पुत्रांनी सदैव मान ठेवावा. या योग्यतेचेच ते असतात व जे असे मान ठेवणारे नसतात त्यांची खूप हानी होते.