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आसी॑नासोऽअरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य॒ वस्वः॒ प्रय॑च्छ॒त तऽइ॒होर्जं॑ दधात ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आसी॑नासः। अ॒रु॒णीना॑म्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। र॒यिम्। ध॒त्त। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑। पि॒त॒रः॒। तस्य॑। वस्वः॑। प्र। य॒च्छ॒त॒। ते। इह। ऊर्ज्ज॑म्। द॒धा॒त॒ ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पितरः) पितृ लोगो ! तुम (इह) इस गृहाश्रम में (अरुणीनाम्) गौरवर्णयुक्त स्त्रियों के (उपस्थे) समीप में (आसीनासः) बैठे हुए (पुत्रेभ्यः) पुत्रों के और (दाशुषे) दाता (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (रयिम्) धन को (धत्त) धरो, (तस्य) उस (वस्वः) धन के भागों को (प्र, यच्छत) दिया करो, जिससे (ते) वे स्त्री आदि सब लोग (ऊर्ज्जम्) पराक्रम को (दधात) धारण करें ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही वृद्ध हैं जो अपनी स्त्री ही के साथ प्रसन्न, अपनी पत्नियों का सत्कार करनेहारे, सन्तानों के लिये यथायोग्य दायभाग और सत्पात्रों को सदा दान देते हैं और वे सन्तानों को सत्कार करने योग्य होते हैं ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आसीनासः) उपस्थिताः सन्तः (अरुणीनाम्) अरुणवर्णानां स्त्रीणाम् (उपस्थे) उत्सङ्गे (रयिम्) श्रियम् (धत्त) (दाशुषे) दात्रे (मर्त्याय) मनुष्याय (पुत्रेभ्यः) (पितरः) (तस्य) (वस्वः) वसुनो धनस्य (प्र) (यच्छत) (ते) (इह) (ऊर्ज्जम्) पराक्रमम् (दधात) दधीरन् ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पितरः ! यूयमिहारुणीनामुपस्थ आसीनासः सन्तः पुत्रेभ्यो दाशुषे मर्त्याय च रयिं धत्त, तस्य वस्वोंऽशान् प्रयच्छत, यतस्त ऊर्जं दधात ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - त एव वृद्धाः सन्ति ये स्वस्त्रीव्रताः स्वपत्नीनां सत्कर्त्तारोऽपत्येभ्यो यथायोग्यं दायं सत्पात्रेभ्यो दानं च सदा ददति, ते च सन्तानैर्माननीयाः सन्ति ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - तेच खरे वृद्ध असतात जे आपल्या पत्नीसमवेत प्रसन्न राहतात व पत्नींचा सत्कार करणाऱ्या संतानांना यथायोग्य पैतृक संपत्ती देतात आणि सत्पात्रांना दान देतात. तेच लोक संतानांनी सन्मान करण्यायोग्य असतात.