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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को कैसे शुद्ध होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (ते) तेरे (अर्चिषि) सत्कार करने योग्य शुद्ध तेजःस्वरूप में (अन्तरा) सब से भिन्न (यत्) जो (विततम्) विस्तृत सब में व्याप्त (पवित्रम्) शुद्धस्वरूप (ब्रह्म) उत्तम वेद विद्या है, (तेन) उससे (मा) मुझ को आप (पुनातु) पवित्र कीजिये ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो देवों का देव, पवित्रों का पवित्र, व्याप्तों में व्याप्त अन्तर्यामी ईश्वर और उसकी विद्या वेद है, उसके अनुकूल आचरण से निरन्तर पवित्र हूजिये ॥४१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
जनैः कथं शुद्धैर्भवितव्यमित्याह ॥
अन्वय:
(यत्) (ते) तव (पवित्रम्) शुद्धम् (अर्चिषि) अर्चितुं योग्ये शुद्धे तेजसि (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूपेश्वर (विततम्) व्याप्तम् (अन्तरा) (ब्रह्म) बृहद्विद्यं वेदचतुष्टयम् (तेन) (पुनातु) (मा) माम् ॥४१ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! ते तवार्चिष्यन्तरा यत् विततं पवित्रं ब्रह्मास्ति, तेन मा मां भवान् पुनातु ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं यो देवानां देवः पवित्राणां पवित्रो व्याप्तेषु व्याप्तोऽन्तर्यामीश्वरस्तद्विद्या वेदश्चाऽस्ति, तदनुकूलाचरणेन सततं पवित्रा भवत ॥४१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो देवांचा देव, पवित्रांमध्ये पवित्र, व्याप्तांमध्ये व्याप्त असा अंतर्यामी ईश्वर आहे. त्याची विद्या वेद असून, त्याप्रमाणे आचरण करून सदैव पवित्र बना.