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पु॒नन्तु॑ मा पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑ पु॒नन्तु॑ मा पिताम॒हाः पु॒नन्तु॒ प्रपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण श॒तायु॑षा। पु॒नन्तु॑ मा पिताम॒हाः पु॒नन्तु॒ प्रपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण श॒तायु॑षा विश्व॒मायु॒र्व्य᳖श्नवै ॥३७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒ता॒म॒हाः। पु॒नन्तु॑। प्रपि॑तामहा॒ इति॒ प्रऽपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण। श॒तायु॒षेति॑ श॒तऽआ॑युषा। पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒ता॒म॒हाः। पु॒नन्तु॑। प्रपि॑तामहा॒ इति॒ प्रऽपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण। श॒तायु॒षेति॑ श॒तऽआ॑युषा। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्न॒वै॒ ॥३७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम्यासः) ऐश्वर्य से युक्त वा चन्द्रमा के तुल्य शान्त (पितरः) ज्ञान देने से पालक पितर लोग (पवित्रेण) शुद्ध (शतायुषा) सौ वर्ष की आयु से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें, अति बुद्धिमान् चन्द्रमा के तुल्य आनन्दकर्त्ता (पितामहाः) पिताओं के पिता उस अतिशुद्ध सौ वर्षयुक्त आयु से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें। ऐश्वर्यदाता चन्द्रमा के तुल्य शीतल स्वभाववाले (प्रपितामहाः) पितामहों के पिता लोग शुद्ध सौ वर्ष पर्य्यन्त जीवन से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें। विद्यादि ऐश्वर्ययुक्त वा शान्तस्वभाव (पितामहाः) पिताओं के पिता (पवित्रेण) अतीव शुद्धानन्दयुक्त (शतायुषा) शत वर्ष पर्य्यन्त आयु से मुझ को (पुनन्तु) पवित्राचरणयुक्त करें। सुन्दर ऐश्वर्य के दाता वा शन्तियुक्त (प्रपितामहाः) पितामहों के पिता पवित्र धर्माचरणयुक्त सौ वर्ष पर्यन्त आयु से मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें, जिससे मैं (विश्वम्) सम्पूर्ण (आयुः) जीवन को (व्यश्नवै) प्राप्त होऊँ ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - पिता, पितामह और प्रपितामहों को योग्य है कि अपने कन्या और पुत्रों को ब्रह्मचर्य, अच्छी शिक्षा और धर्मोपदेश से संयुक्त करके विद्या और उत्तम शील से युक्त करें। सन्तानों को योग्य है कि पितादि की सेवा और अनुकूल आचरण से पिता आदि सभों की नित्य सेवा करें, ऐसे परस्पर उपकार से गृहाश्रम में आनन्द के साथ वर्त्तना चाहिये ॥३७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(पुनन्तु) अशुद्धाद् व्यवहारान्निवर्त्य शुद्धे प्रवर्त्य पवित्रीकुर्वन्तु (मा) माम् (पितरः) ज्ञानप्रदानेन पालकाः (सोम्यासः) सोमे ऐश्वर्ये भवाः सोमवच्छान्ता वा (पुनन्तु) (मा) (पितामहाः) (पुनन्तु) (प्रपितामहाः) (पवित्रेण) शुद्धाचरणयुक्तेन (शतायुषा) शतं वर्षाणि यस्मिन्नायुषि तेन (पुनन्तु) (मा) (पितामहाः) (पुनन्तु) (प्रपितामहाः) (पवित्रेण) ब्रह्मचर्य्यादिधर्माचरणयुक्तेन (शतायुषा) (विश्वम्) पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (वि) विविधार्थे (अश्नवै) प्राप्नुयाम्। लोट्प्रयोगोऽयम् ॥३७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - सोम्यासः पितरः पवित्रेण शतायुषा मा पुनन्तु, सोम्यासः पितामहाः पवित्रेण शतायुषा मा पुनन्तु, सोम्यासः प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा मा पुनन्तु, सोम्यासः पितामहाः पवित्रेण शतायुषा मा पुनन्तु, सोम्यासः प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा मा पुनन्तु, यतोऽहं विश्वमायुर्व्यश्नवै प्राप्नुयाम् ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - पितृपितामहप्रपितामहैः स्वकन्याः पुत्रांश्च ब्रह्मचर्यसुशिक्षाधर्मोपदेशेन संयोज्य विद्यासुशीलयुक्ताः कार्याः सन्तानैः सेवानुकूलाचरणाभ्यां सर्वे नित्यं सेवनीयाः। एवं परस्परोपकारेण गृहाश्रमे आनन्देन वर्त्तितव्यम् ॥३७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वडील, आजोबा, पणजोबा यांनी आपल्या मुला-मुलींना ब्रह्मचर्य, चांगले शिक्षण व धर्माचा उपदेश करून विद्या व शील यांनी युक्त करावे. संतानांनी पित्याच्या अनुकुल वागावे व त्यांची सेवा करावी. याप्रमाणे परस्पर उपकार करून गृहस्थाश्रमात आनंदाने राहावे.