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प॒शुभिः॑ प॒शूना॑प्नोति पुरो॒डाशै॑र्ह॒वीष्या। छन्दो॑भिः सामिधे॒नीर्या॒ज्या᳖भिर्वषट्का॒रान् ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुभिः॑। प॒शून्। आ॒प्नो॒ति॒। पु॒रो॒डाशैः॑। ह॒वीषि॑। आ। छन्दो॑भि॒रिति॒ छन्दः॑ऽभिः। सा॒मि॒धे॒नीरिति॑ साम्ऽइधे॒नीः। या॒ज्या᳖भिः। व॒ष॒ट्का॒रानिति॑ वषट्ऽका॒रान् ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे सद्गृहस्थ (पशुभिः) गवादि पशुओं से (पशून्) गवादि पशुओं को (पुरोडाशैः) पचन क्रियाओं से पके हुए उत्तम पदार्थों से (हवींषि) हवन करते योग्य उत्तम पदार्थों को (छन्दोभिः) गायत्री आदि छन्दों की विद्या से (सामिधेनीः) जिससे अग्नि प्रदीप्त हो, उस सुन्दर समिधाओं को (याज्याभिः) यज्ञ की क्रियाओं से (वषट्कारान्) जो धर्मयुक्त क्रिया को करते हैं, उनको (आ, आप्नोति) प्राप्त होता है, वैसे इनको तुम भी प्राप्त होओ ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो संसार में बहुत पशुवाला होम करके, हुतशेष का भोक्ता, वेदवित् और सत्यक्रिया का कर्त्ता मनुष्य होवे, सो प्रशंसा को प्राप्त होता है ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(पशुभिः) गवादिभिः (पशून्) गवादीन् (आप्नोति) (पुरोडाशैः) पचनक्रियासंस्कृतैः (हवींषि) होतुमर्हाणि वस्तूनि (आ) (छन्दोभिः) प्रज्ञापकैर्गायत्र्यादिभिः (सामिधेनीः) सम्यगिध्यन्ते याभिस्ताः सामिधेनीः (याज्याभिः) याभिः क्रियाभिरिज्यन्ते ताभिः (वषट्कारान्) ये वषट् धर्म्यां क्रियां कुर्वन्ति तान् ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सद्गृहस्थः पशुभिः पशून् पुरोडाशैर्हवींषि छन्दोभिस्सामिधेनीर्याज्याभिर्वषट्कारा-नाऽऽप्नोति तथैतान् यूयमाप्नुत ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। योऽत्र बहुपशुर्हविर्भुग्वेदवित्सत्क्रियो मनुष्यो भवेत्, स प्रशंसामाप्नोति ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो या जगात गाई वगैरे पुष्कळ पशूंपासून प्राप्त होणाऱ्या पदार्थांचा तूप वगैरेंनी होम करून हुतशेषाचा (उरलेला भाग) भोक्ता, वेदज्ञ, सत्य कर्म करणारा माणूस बनतो तो प्रशंसनीय असतो.