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ह॒वि॒र्धानं॒ यद॒श्विनाग्नी॑ध्रं॒ यत्सर॑स्वती। इन्द्रा॑यै॒न्द्रꣳसद॑स्कृ॒तं प॑त्नी॒शालं॒ गार्ह॑पत्यः ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। यत्। अ॒श्विना॑। आग्नी॑ध्रम्। यत्। सर॑स्वती। इन्द्रा॑य। ऐ॒न्द्रम्। सदः॑। कृ॒तम्। प॒त्नी॒शाल॒मिति॑ पत्नी॒ऽशाल॑म्। गार्ह॑पत्य॒ इति॒ गार्ह॑ऽपत्यः ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री-पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्थ पुरुषो ! जैसे विद्वान् (अश्विना) स्त्री और पुरुष (यत्) जो (हविर्धानम्) देने वा लेने योग्य पदार्थों का धारण जिसमें किया जाता वह और (यत्) जो (सरस्वती) विदुषी स्त्री (आग्नीध्रम्) ऋत्विज् का शरण करती हुई तथा विद्वानों ने (इन्द्राय) ऐश्वर्य से सुख देनेहारे पति के लिये (ऐन्द्रम्) ऐश्वर्य के सम्बन्धी (सदः) जिसमें स्थित होते हैं, उस सभा और (पत्नीशालम्) पत्नी की शाला घर को (कृतम्) किया है, सो यह सब (गार्हपत्यः) गृहस्थ का संयोगी धर्म ही है, वैसे उस सब कर्त्तव्य को तुम भी करो ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे ऋत्विज् लोग सामग्री का सञ्चय करके यज्ञ को शोभित करते हैं, वैसे प्रीतियुक्त स्त्री-पुरुष घर के कार्यों को नित्य सिद्ध किया करें ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रीपुरुषाभ्यां किं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

(हविर्धानम्) हवींषि ग्राह्याणि देयानि वा संस्कृतानि वस्तूनि धीयन्ते यस्मिन् (यत्) (अश्विना) स्त्रीपुरुषौ (आग्नीध्रम्) अग्नीध ऋत्विजः शरणम् (यत्) (सरस्वती) विदुषी स्त्री (इन्द्राय) ऐश्वर्यसुखप्रदाय पत्ये (ऐन्द्रम्) इन्द्रस्यैश्वर्यस्येदम् (सदः) सीदन्ति यस्मिँस्तम् (कृतम्) निष्पन्नम् (पत्नीशालम्) पत्न्याः शाला पत्नीशालम् (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहस्था स्त्रीपुरुषाः ! यथा विद्वांसावश्विना यद्धविर्धानं कृतवन्तौ, यच्च सरस्वती आग्नीध्रं कृतवती, इन्द्रायैन्द्रं सदः पत्नीशालं च विद्वद्भिः कृतम्, तदिदं सर्वं गार्हपत्यो धर्म एवास्ति, तथा तत् सर्वं यूयमपि कुरुत ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथर्त्विजः सम्भारान् सञ्चित्य यज्ञमलङ्कुर्वन्ति, तथा प्रीतियुक्तौ स्त्रीपुरुषौ गृहकृत्यानि सततं साध्नुतम् ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे ऋत्विज लोक सामग्रीचा संचय करून उत्तम यज्ञ करतात तसे प्रेमळ स्री-पुरुषांनी घरातील कार्य चांगल्याप्रकारे करावे.