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यत्र॒ धारा॒ऽअन॑पेता॒ मधो॑र्घृ॒तस्य॑ च॒ याः। तद॒ग्निर्वै॑श्वकर्म॒णः स्व॑र्दे॒वेषु॑ नो दधत् ॥६५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्र॑। धाराः॑। अन॑पेता॒ इत्यन॑पऽइताः। मधोः॑। घृ॒तस्य॑। च॒। याः। तत्। अ॒ग्निः। वै॒श्व॒क॒र्म॒ण इति॑ वैश्वऽकर्म॒णः। स्वः॑। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त् ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिस यज्ञ में (मधोः) मधुरादि गुणयुक्त सुगन्धित द्रव्यों (च) और (घृतस्य) घृत के (याः) जिन (अनपेताः) संयुक्त (धाराः) प्रवाहों को विद्वान् लोग करते हैं, (तत्) उन धाराओं से (वैश्वकर्मणः) सब कर्म होने का निमित्त (अग्निः) अग्नि (नः) हमारे लिये (देवेषु) दिव्य व्यवहारों में (स्वः) सुख को (दधत्) धारण करता है ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वेदि आदि को बना के सुगन्ध और मिष्टादियुक्त बहुत घृत को अग्नि में हवन करते हैं, वे सब रोगों का निवारण करके अतुल सुख को उत्पन्न करते हैं ॥६५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(यत्र) यज्ञे (धाराः) प्रवाहा (अनपेताः) नापेताः पृथग्भूताः (मधोः) मधुरगुणान्वितस्य द्रव्यस्य (घृतस्य) आज्यस्य (च) (याः) (तत्) ताभिः (अग्निः) पावकः (वैश्वकर्मणः) विश्वान्यखिलानि कर्माणि यस्मात् स एव (स्वः) सुखम् (देवेषु) दिव्येषु व्यवहारेषु (नः) अस्मभ्यम् (दधत्) दधाति। दधातेर्लेटो रूपम् ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यत्र मधोर्घृतस्य च या अनपेता धारा विद्वद्भिः क्रियन्ते, तद्वैश्वकर्मणोऽग्निर्नो देवेषु स्वर्दधत् ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या वेद्यादिकं निर्माय सुगन्धिमिष्टादियुक्तं बहुघृतमग्नौ जुह्वति, ते सर्वान् रोगान्निहत्यातुलं सुखं जनयन्ति ॥६५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे वेदी बनवून सुगंधी पदार्थ व मिष्टान्न आणि घृत अग्नीत घालून हवन करतात ती सर्व रोगांचे निवारण करून अत्यंत सुख उत्पन्न करतात.