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प्र॒स्त॒रेण॑ परि॒धिना॑ स्रु॒चा वेद्या॑ च ब॒र्हिषा॑। ऋ॒चेमं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्व᳖र्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒स्त॒रेणेति॑ प्रऽस्त॒रेण॑। प॒रि॒धिनेति॑ परि॒ऽधिना॑। स्रु॒चा। वेद्या॑। च॒। ब॒र्हिषा॑। ऋ॒चा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्रियायज्ञ कैसे सिद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (वेद्या) जिसमें होम किया जाता है, उस वेदी तथा (स्रुचा) होमने का साधन (बर्हिषा) उत्तम क्रिया (प्रस्तेरण) आसन (परिधिना) जो सब ओर धारण किया जाय, उस यजुर्वेद (च) तथा (ऋचा) स्तुति वा ऋग्वेद आदि से (इमम्) इस पदार्थमय अर्थात् जिसमें उत्तम भोजनों के योग्य पदार्थ होमे जाते हैं, उस (यज्ञम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (देवेषु) दिव्य पदार्थ वा विद्वानों में (गन्तवे) प्राप्त होने के लिये (स्वः) संसारसम्बन्धी सुख (नः) हम लोगों को (नय) पहुँचाओ ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य धर्म से पाये हुए पदार्थों तथा वेद की रीति से साङ्गोपाङ्ग यज्ञ को सिद्ध करते हैं, वे सब प्राणियों के उपकारी होते हैं ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः क्रियायज्ञः कथं साधनीय इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(प्रस्तरेण) आसनेन (परिधिना) यः परितः सर्वतोऽधीते तेन (स्रुचा) येन यज्ञः साध्यते (वेद्या) यस्यां हूयते तया (च) (बर्हिषा) उत्तमेन कर्मणा (ऋचा) स्तुत्या ऋग्वेदादिना वा (इमम्) पदार्थमयम् (यज्ञम्) अग्निहोत्रादिकम् (नः) अस्मान् (नय) (स्वः) सांसारिकं सुखम् (देवेषु) दिव्येषु पदार्थेषु विद्वत्सु वा (गन्तवे) गन्तुं प्राप्तुम् ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वंस्त्वं वेद्या स्रुचा बर्हिषा प्रस्तरेण परिधिनर्चा चेमं यज्ञं देवेषु गन्तवे स्वर्नो नय ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या धर्मेण प्राप्तैर्द्रव्यैर्वेदरीत्या च साङ्गोपाङ्गं यज्ञं साध्नुवन्ति, ते सर्वप्राण्युपकारिणो भवन्ति ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे धर्माने प्राप्त झालेल्या पदार्थांनी व वैदिक रीतीने सांगोपांग यज्ञ संपन्न करतात ती सर्व प्राण्यांवर उपकार करतात.