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ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै ॥६० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तम्। जा॒ना॒थ॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॑ विऽओ॑मन्। देवाः॑। स॒ध॒स्था॒ इति॑ सधऽस्थाः। वि॒द॒। रू॒पम्। अ॒स्य॒। यत्। आ॒गच्छा॒दित्या॒ऽगच्छा॑त्। प॒थिभि॒रिति॒ प॒थिभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्त इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। कृ॒ण॒वा॒थ॒। आ॒विः। अ॒स्मै॒ ॥६० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:60


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सधस्थाः) एक साथ स्थानवाले (देवाः) विद्वानो ! तुम (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में व्याप्त (एतम्) इस परमात्मा को (जानाथ) जानो और (अस्य) इसके व्यापक (रूपम्) सत्य चैतन्यमात्र आनन्दमय स्वरूप को (विद) जानो, (यत्) जिस सच्चिदानन्द-लक्षण परमेश्वर को (देवयानैः) धार्मिक विद्वानों के (पथिभिः) मार्गों से पुरुष (आगच्छात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, (अस्मै) इस परमेश्वर के लिये (इष्टापूर्त्ते) वेदोक्त यज्ञादि कर्म और उसके साधक स्मार्त्त कर्म को (आविः) प्रकाशित (कृणवाथ) किया करो ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य विद्वानों के सङ्ग, योगाभ्यास और धर्म के आचरण से परमेश्वर को अवश्य जानें। ऐसा न करें तो यज्ञ आदि श्रौत स्मार्त्त कर्मों को नहीं सिद्ध करा सकें और न मुक्ति पा सकें ॥६० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स एव विषय उपदिश्यते ॥

अन्वय:

(एतम्) परमात्मानम् (जानाथ) विजानीत। लेट्प्रयोगोऽयम् (परमे) (व्योमन्) (देवाः) विद्वांसः (सधस्थाः) सहस्थानाः (विद) बुद्ध्यध्वम् (रूपम्) सच्चिदानन्दस्वरूपम् (अस्य) (यत्) (आगच्छात्) समन्तात् प्राप्नुयात् (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) देवा धार्मिका विद्वांसो गच्छन्ति येषु तैः (इष्टापूर्त्ते) इष्टं श्रौतं कर्म च पूर्त्तं स्मार्त्तं कर्म च ते (कृणवाथ) कुरुथ (आविः) प्राकट्ये (अस्मै) परमात्मने ॥६० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सधस्था देवाः ! यूयं परमे व्योमन् व्याप्तमेतं जानाथास्य रूपं विद यद्देवयानैः पथिभिरागच्छादस्मै परमात्मने इष्टापूर्त्ते आविः कृणवाथ ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे मनुष्या विद्वत्सङ्गयोगाभ्यासधर्माचारैः परमेश्वरमवश्यं जानीयुर्नोचेदिष्टापूर्त्ते साधयितुं न शक्नुयुः, न च मुक्तिं प्राप्नुयुः ॥६० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माण्सांनी विद्वानांच्या संगतीने, योगाभ्यासाने, धर्माचरणाने परमेश्वराला अवश्य जाणावे. असे न केल्यास यज्ञ इत्यादी श्रौत स्मार्त्त कर्म ते सिद्ध करू शकत नाहीत किंवा मुक्ती प्राप्त करू शकत नाहीत.