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यदाकू॑तात् स॒मसु॑स्रोद्धृ॒दो वा॒ मन॑सो वा॒ सम्भृ॑तं॒ चक्षु॑षो वा। तद॑नु॒ प्रेत॑ सु॒कृता॑मु लो॒कं यत्र॒ऽऋष॑यो ज॒ग्मुः प्र॑थम॒जाः पु॑रा॒णाः ॥५८ ॥

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पद पाठ

यत्। आकू॑ता॒दित्याऽकू॑तात्। स॒मसु॑स्रो॒दिति॑ स॒म्ऽअसु॑स्रोत्। हृ॒दः। वा॒। मन॑सः। वा॒। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। चक्षु॑षः। वा॒। तत्। अ॒नु॒प्रेतेत्य॑नु॒ऽप्रेत॑। सु॒कृता॒मिति॑ सु॒कृता॑म्। ऊ॒ऽइत्यूँ॑। लो॒कम्। यत्र॑। ऋष॑यः। ज॒ग्मुः। प्र॒थ॒म॒जाः। पु॒रा॒णाः ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के विषय में सत्य का निर्णय, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सत्य-असत्य का ज्ञान चाहते हुए मनुष्यो ! तुम लोग (यत्) जो (आकूतात्) उत्साह (हृदः) आत्मा (वा) वा प्राण (मनसः) मन (वा) वा बुद्धि आदि तथा (चक्षुषः) नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए प्रत्यक्षादि प्रमाणों से (वा) वा कान आदि इन्द्रियों से (सम्भृतम्) अच्छे प्रकार धारण किया अर्थात् निश्चय से ठीक जाना, सुना, देखा और अनुमान किया है, (तत्) वह (समसुस्रोत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, इस कारण (प्रथमजाः) हम लोगों से पहिले उत्पन्न हुए (पुराणाः) हम से प्राचीन (ऋषयः) वेदविद्या के जाननेवाले परमयोगी ऋषिजन (यत्र) जहाँ (जग्मुः) पहुँचे, उस (सुकृताम्) सुकृति मोक्ष चाहते हुए सज्जनों के (उ) ही (लोकम्) प्रत्यक्ष सुखसमूह वा मोक्षपद को (अनुप्रेत) अनुकूलता से पहुँचो ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य सत्य-असत्य के निर्णय के जानने की चाहना करें, तब जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से तथा सृष्टिक्रम, प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से, अच्छे-अच्छे सज्जनों के आचार से, आत्मा और मन के अनुकूल हो, वह सत्य और उससे भिन्न झूठ है, यह निश्चय करें। जो ऐसे परीक्षा करके धर्म का आचरण करते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥५८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषये सत्यनिर्णयमाह ॥

अन्वय:

(यत्) (आकूतात्) उत्साहात् (समसुस्रोत्) सम्यक् प्राप्नुयात्। अत्र बहुलं छन्दसि [अष्टा०२.४.७६] इति शपः श्लुः (हृदः) आत्मनः (वा) प्राणात् (मनसा) संकल्पविकल्पात्मकात् (वा) बुद्ध्यादेः (सम्भृतम्) सम्यग् धृतम् (चक्षुषः) प्रत्यक्षादेरिन्द्रियोत्पन्नात् (वा) श्रोत्रादिभ्यः (तत्) (अनुप्रेत) आनुकूल्येन प्राप्नुत (सुकृताम्) मुमुक्षूणाम् (उ) (लोकम्) दर्शनसुखसङ्घातं मोक्षपदं वा (यत्र) यस्मिन् (ऋषयः) वेदविद्यापुरस्सराः परमयोगिनः (जग्मुः) गताः (प्रथमजाः) अस्मदादौ जाताः (पुराणाः) अस्मदपेक्षायां प्राचीनाः ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सत्यासत्यजिज्ञासवो जनाः ! यूयं यदाकूताद्धृदो वा मनसो वा चक्षुषो वा संभृतमस्ति, तत्समसुस्रोदतः प्रथमजाः पुराणा ऋषयो यत्र जग्मुस्तं सुकृतामु लोकमनुप्रेत ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - यदा मनुष्याः सत्यासत्यनिर्णयं जिज्ञासेयुस्तदा यद्यदीश्वरगुणकर्मस्वभावात् सृष्टिक्रमात् प्रत्यक्षादिप्रमाणेभ्य आप्ताचारादात्ममनोभ्यानुकूलं स्यात् तत्तत् सत्यमितरदसत्यमिति निश्चिनुयुर्य एवं धर्मं परीक्ष्याचरन्ति, तेऽतिसुखं प्राप्नुवन्ति ॥५८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा माणसांना सत्य व असत्याचा निर्णय करण्याची इच्छा होते, तेव्हा ईश्वराचे गुण, कर्म, स्वभाव, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्ष इत्यादी आठ प्रमाण, सज्जनांचे आचरण, आत्मा व मनाच्या अनुकूल असेल ते ते सत्य व त्याहून भिन्न असलेले असत्य हे निश्चयाने जाणावे. जे अशी परीक्षा करून धर्माचे आचरण करतात ते अत्यंत सुखी होतात.