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विश्व॑स्य मू॒र्द्धन्नधि॑ तिष्ठसि श्रि॒तः स॑मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्वायुर॒॑पो द॑त्तोद॒धिं भि॑न्त। दि॒वस्प॒र्जन्या॑द॒न्तरि॑क्षात् पृथि॒व्यास्ततो॑ नो॒ वृष्ट्या॑व ॥५५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑स्य। मू॒र्द्धन्। अधि॑। ति॒ष्ठ॒सि॒। श्रि॒तः। स॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्सु। आयुः॑ अ॒पः। द॒त्त॒। उ॒द॒धिमित्यु॑द॒ऽधिम्। भि॒न्त॒। दि॒वः। प॒र्जन्या॑त्। अ॒न्तरि॑क्षात्। पृ॒थि॒व्याः। ततः॑। नः॒। वृष्ट्या॑। अ॒व॒ ॥५५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:55


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो आप (विश्वस्य) सब संसार के (मूर्द्धन्) शिर पर (श्रितः) विराजमान सूर्य के समान (अधि, तिष्ठसि) अधिकार पाये हुए हैं, जिन (ते) आपका (समुद्रे) अन्तरिक्ष के तुल्य व्यापक परमेश्वर में (हृदयम्) मन (अप्सु) प्राणों में (आयुः) जीवन है, उन (अपः) प्राणों को (दत्त) देते हो, (उदधिम्) समुद्र का (भिन्त) भेदन करते हो, जिससे सूर्य (दिवः) प्रकाश (अन्तरिक्षात्) आकाश (पर्जन्यात्) मेघ और (पृथिव्याः) भूमि से (वृष्ट्या) वर्षा के योग से सब चराचर प्राणियों की रक्षा करता है, (ततः) इससे अर्थात् सूर्य के तुल्य (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा करो ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान सुख वर्षाने और उत्तम आचरणों के करनेहारे हैं, वे सबको सुखी कर सकते हैं ॥५५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (मूर्द्धन्) (अधि) उपरि (तिष्ठसि) (श्रितः) (समुद्रे) अन्तरिक्षवद् व्याप्ते परमेश्वरे (ते) तव (हृदयम्) (अप्सु) प्राणेषु (आयुः) जीवनम् (अपः) प्राणान् (दत्त) ददासि (उदधिम्) उदकधारकं सागरम् (भिन्त) भिनत्सि (दिवः) प्रकाशात् (पर्जन्यात्) मेघात् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (पृथिव्याः) भूमेः (ततः) तस्मात् (नः) (वृष्ट्या) (अव) रक्ष ॥५५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यस्त्वं विश्वस्य मूर्द्धन् श्रितः सूर्य इवाधितिष्ठसि, यस्य ते समुद्रे हृदयमप्स्वायुरस्ति, स त्वमपो दत्तोदधिं भिन्त, यतः सूर्यो दिवोऽन्तरिक्षात् पर्जन्यात् पृथिव्या वृष्ट्या सर्वानवति, ततो नोऽस्मानव ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवत्सुखवर्षका उत्तमाचारिणो भवन्ति, ते सर्वान् सुखिनः कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥५५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे वर्षाव करणारी व उत्तम आचरण करणारी असतात, ती सर्वांना सुखी करतात.