वांछित मन्त्र चुनें

यास्ते॑ अग्ने॒ सूर्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। ताभि॑र्नोऽअ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सूर्ये॑। रुचः॑। दिव॑म्। आ॒त॒न्वन्तीत्या॑ऽत॒न्वन्ति॑। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। ताभिः॑। नः॒। अ॒द्य। सर्वा॑भिः। रु॒चे। जना॑य। नः॒। कृ॒धि॒ ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:46


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) परमेश्वर वा विद्वन् ! (याः) जो (सूर्ये) सूर्य वा प्राण में (रुचः) दीप्ति वा प्रीति हैं और जो (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (दिवम्) प्रकाश को (आतन्वन्ति) सब ओर से फैलाती हैं, (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब (ते) अपनी दीप्ति वा प्रीतियों से (अद्य) आज (नः) हम लोगों को संयुक्त करो और (रुचे) प्रीति करनेहारे (जनाय) मनुष्य के अर्थ (नः) हम लोगों को (कृधि) नियत करो ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर सूर्य आदि प्रकाश करनेहारे लोकों का भी प्रकाश करनेहारा है, वैसे सब शास्त्र को यथावत् कहनेवाला विद्वान् विद्वानों को भी विद्या देनेहारा होता है। जैसे ईश्वर इस संसार में सब प्राणियों की सत्य में रुचि और असत्य में अरुचि को उत्पन्न करता है, वैसा विद्वान् भी आचरण करे ॥४६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विदुषा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(याः) (ते) तव (अग्ने) परमेश्वर विद्वन् वा (सूर्ये) सवितरि प्राणे वा (रुचः) दीप्तयः प्रीतयो वा (दिवम्) प्रकाशम् (आतन्वन्ति) सर्वतो विस्तृणन्ति (रश्मिभिः) (ताभिः) रुग्भिः (नः) अस्मान् (अद्य) (सर्वाभिः) (रुचे) प्रीतिकराय (जनाय) (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विद्वन् ! याः सूर्ये रुचः सन्ति, या रश्मिभिर्दिवमातन्वन्ति, ताभिः सर्वाभिस्ते रुग्भिरद्य नः संयोजय, रुचे जनाय च नस्कृधि ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरः सूर्यादीनां प्रकाशकानामपि प्रकाशकोऽस्ति, तथाऽनूचानो विद्वान् विदुषामपि विद्याप्रदो भवति, यथेश्वरोऽत्र जगति सर्वेषां सत्ये रुचिमसत्येऽरुचिं जनयति, तथा विद्वानप्याचरेत् ॥४६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा परमेश्वर सूर्य इत्यादी प्रकाशकांचा प्रकाशक आहे तसे सर्व शास्रे जाणणारा विद्वान, विद्वानांनाही विद्या देणारा असतो. ईश्वर ज्याप्रमाणे सर्व प्राण्यांमध्ये सत्याबद्दल प्रीती व असत्याबद्दल अप्रीती उत्पन्न करतो त्याप्रमाणे विद्वानांनीही आचरण करावे.