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इ॒षि॒रो वि॒श्वव्य॑चा॒ वातो॑ गन्ध॒र्वस्तस्यापो॑ऽअप्स॒रस॒ऽऊर्जो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒षि॒रः। वि॒श्वव्य॑चाः। वातः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। आपः॑। अ॒प्स॒रसः॑। ऊर्जः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:41


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को पवन आदि से उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इषिरः) जिससे इच्छा करते वा (विश्वव्यचाः) जिसकी सब संसार में व्याप्ति है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी और किरणों को धारण करता (वातः) सब जगह भ्रमण करनेवाला पवन है (तस्य) उसके जो (आपः) जल और प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान आदि भाग हैं, वे (अप्सरसः) अन्तरिक्ष जल में जाने-आने और (ऊर्जः) बल-पराक्रम के देनेवाले (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) सत्य के उपदेश से सब की वृद्धि करनेवाले ब्राह्मणकुल तथा (क्षत्रम्) विद्या के बढ़ानेवाले राजकुल की (पातु) रक्षा करे, वैसे तुम लोग भी आचरण करो और (तस्मै) उक्त पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति तथा (ताभ्यः) उन जल आदि के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा उत्तम वाणी को युक्त करो ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - शरीर में जितनी चेष्टा और बल-पराक्रम उत्पन्न होते हैं, वे सब पवन से होते हैं और पवन ही प्राणरूप और जल गन्धर्व अर्थात् सबको धारण करनेवाले हैं, यह मनुष्यों को जानना चाहिये ॥४१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैर्वातादिभ्य उपकारा ग्राह्या इत्याह ॥

अन्वय:

(इषिरः) येनेच्छन्ति सः (विश्वव्यचाः) विश्वस्मिन् सर्वस्मिञ्जगति व्यचो व्याप्तिर्यस्य सः (वातः) वाति गच्छतीति (गन्धर्वः) यः पृथिवीं किरणांश्च धरति सः (तस्य) (आपः) जलानि प्राणा वा (अप्सरसः) या अन्तरिक्षे जलादौ च सरन्ति गच्छन्ति ताः (ऊर्जः) बलपराक्रमप्रदाः (नाम) संज्ञा (सः) (नः) अस्मभ्यम् (इदम्) (ब्रह्म) सर्वेषां सत्योपदेशेन वर्द्धकं ब्रह्मकुलम् (क्षत्रम्) विद्यावर्धकं राजकुलम् (पातु) रक्षतु (तस्मै) (स्वाहा) (वाट्) (ताभ्यः) (स्वाहा) ॥४१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! य इषिरो विश्वव्यचा गन्धर्वो वातोऽस्ति, तस्य या आपोऽप्सरस ऊर्जो नाम वर्त्तन्ते, यथा स न इदं ब्रह्म क्षत्रं च पातु, तथा यूयमाचरत, तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा संप्रयुङ्ग्ध्वम् ॥४१ ॥
भावार्थभाषाः - शरीरे यावन्तश्चेष्टाबलपराक्रमा जायन्ते, तावन्तो वायोः सकाशादेव जायन्ते, वायव एव प्राणरूपा गन्धर्वाः सर्वधराः सन्तीति मनुष्यैर्वेद्यम् ॥४१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - शरीराच्या जेवढ्या हालचाली होतात व बल व पराक्रम उत्पन्न होतो त्या सर्व वायूपासून उत्पन्न होतात. वायू प्राणरूप व जल गंधर्व अर्थात् सर्वांना धारण करणारे आहेत, हे माणसांनी जाणले पाहिजे.