ज्यैष्ठ्यं॑ च म॒ऽआधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मेऽम॑श्च॒ मेऽम्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे वर्षि॒मा च॑ मे द्राघि॒मा च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥४ ॥
ज्यैष्ठ्य॑म्। च॒। मे॒। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। च॒। मे॒। म॒न्युः। च॒। मे॒। भामः॑। च॒। मे॒। अमः॑। च॒। मे॒। अम्भः॑। च॒। मे॒। जे॒मा। च॒। मे॒। म॒हि॒मा। च॒। मे॒। व॒रि॒मा। च॒। मे॒। प्र॒थि॒मा। च॒। मे॒। व॒र्षि॒मा। च॒। मे॒। द्रा॒घि॒मा। च॒। मे॒। वृ॒द्धम्। च॒। मे॒। वृद्धिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥४ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(ज्यैष्ठ्यम्) प्रशस्यस्य भावः (च) उत्तमानि वस्तूनि (मे) (आधिपत्यम्) अधिपतेर्भावः (च) अधिपतिः (मे) (मन्युः) अभिमानः (च) शान्तिः (मे) (भामः) क्रोधः। भाम इति क्रोधनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.१३) (च) सुशीलम् (मे) (अमः) न्यायेन प्राप्तो गृहादिपदार्थः (च) प्राप्तव्यः (मे) (अम्भः) उदकम्। अम्भ इत्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (च) दुग्धादिकम् (मे) (जेमा) जेतुर्भावः (च) विजयः (मे) (महिमा) महतो भावः (च) प्रतिष्ठा (मे) (वरिमा) वरस्य श्रेष्ठस्य भावः (च) उत्तमाचरणम् (मे) (प्रथिमा) पृथोर्भावः (च) विस्तीर्णाः पदार्थाः (मे) (वर्षिमा) वृद्धस्य भावः (च) बाल्यम् (मे) (द्राघिमा) दीर्घस्य भावः (च) ह्रस्वत्वम् (मे) (वृद्धम्) प्रभूतं बहुरूपं धनादिकम् (च) स्वल्पमपि (मे) (वृद्धिः) वर्द्धन्ते यया सत्क्रियया सा (च) तज्जन्यं सुखम् (मे) (यज्ञेन) धर्मपालनेन (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु ॥४ ॥