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ज्यैष्ठ्यं॑ च म॒ऽआधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मेऽम॑श्च॒ मेऽम्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे वर्षि॒मा च॑ मे द्राघि॒मा च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ज्यैष्ठ्य॑म्। च॒। मे॒। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। च॒। मे॒। म॒न्युः। च॒। मे॒। भामः॑। च॒। मे॒। अमः॑। च॒। मे॒। अम्भः॑। च॒। मे॒। जे॒मा। च॒। मे॒। म॒हि॒मा। च॒। मे॒। व॒रि॒मा। च॒। मे॒। प्र॒थि॒मा। च॒। मे॒। व॒र्षि॒मा। च॒। मे॒। द्रा॒घि॒मा। च॒। मे॒। वृ॒द्धम्। च॒। मे॒। वृद्धिः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरी (ज्यैष्ठ्यम्) प्रशंसा (च) और उत्तम पदार्थ (मे) मेरा (आधिपत्यम्) स्वामीपन (च) और स्वकीय द्रव्य (मे) मेरा (मन्युः) अभिमान (च) और शान्ति (मे) मेरा (भामः) क्रोध (च) और उत्तम शील (मे) मेरा (अमः) न्याय से पाये हुए गृहादि (च) और पाने योग्य पदार्थ (मे) मेरा (अम्भः) जल (च) और दूध, दही, घी आदि पदार्थ (मे) मेरा (जेमा) जीत का होना (च) और विजय (मे) मेरा (महिमा) बड़प्पन (च) प्रतिष्ठा (मे) मेरी (वरिमा) बड़ाई (च) और उत्तम वर्त्ताव (मे) मेरा (प्रथिमा) फैलाव (च) और फैले हुए पदार्थ (मे) मेरा (वर्षिमा) बुढ़ापा (च) और लड़काई (मे) मेरी (द्राघिमा) बढ़वार (च) और छुटाई (मे) मेरा (वृद्धम्) प्रभुता को पाया हुआ बहुत प्रकार का धन आदि पदार्थ (च) और थोड़ा पदार्थ तथा (मे) मेरा (वृद्धिः) जिस अच्छी क्रिया से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, वह (च) और उससे उत्पन्न हुआ सुख उक्त समस्त पदार्थ (यज्ञेन) धर्म की रक्षा करने से (कल्पन्ताम्) समर्थित होवें ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - हे मित्रजनो ! तुम यज्ञ की सिद्धि और समस्त जगत् के हित के लिये प्रशंसित पदार्थों को संयुक्त करो ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ज्यैष्ठ्यम्) प्रशस्यस्य भावः (च) उत्तमानि वस्तूनि (मे) (आधिपत्यम्) अधिपतेर्भावः (च) अधिपतिः (मे) (मन्युः) अभिमानः (च) शान्तिः (मे) (भामः) क्रोधः। भाम इति क्रोधनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.१३) (च) सुशीलम् (मे) (अमः) न्यायेन प्राप्तो गृहादिपदार्थः (च) प्राप्तव्यः (मे) (अम्भः) उदकम्। अम्भ इत्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (च) दुग्धादिकम् (मे) (जेमा) जेतुर्भावः (च) विजयः (मे) (महिमा) महतो भावः (च) प्रतिष्ठा (मे) (वरिमा) वरस्य श्रेष्ठस्य भावः (च) उत्तमाचरणम् (मे) (प्रथिमा) पृथोर्भावः (च) विस्तीर्णाः पदार्थाः (मे) (वर्षिमा) वृद्धस्य भावः (च) बाल्यम् (मे) (द्राघिमा) दीर्घस्य भावः (च) ह्रस्वत्वम् (मे) (वृद्धम्) प्रभूतं बहुरूपं धनादिकम् (च) स्वल्पमपि (मे) (वृद्धिः) वर्द्धन्ते यया सत्क्रियया सा (च) तज्जन्यं सुखम् (मे) (यज्ञेन) धर्मपालनेन (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मे ज्यैष्ठ्यं च म आधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भामश्च मेऽमश्च मेऽम्भश्च मे जेमा च मे महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश्च यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - हे सखायो जनाः ! यूयं यज्ञसिद्धये सर्वस्य जगतो हिताय च प्रशंसितानि वस्तूनि संयुङ्ग्ध्वम् ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे मित्रांनो ! तुम्ही यज्ञाच्या सिद्धीसाठी व संपूर्ण जगाच्या हितासाठी चांगले पदार्थ एकत्रित करा.