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आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतामा॒त्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्व᳖र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। स्तोम॑श्च॒ यजु॑श्च॒ऽऋक् च॒ साम॑ च बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रञ्च॑। स्व॑र्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ वेट् स्वाहा॑ ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। वाक्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। मनः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। आ॒त्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ब्र॒ह्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। ज्योतिः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वः᳖। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्तोमः॑। च॒। यजुः॑। च॒। ऋक्। च॒। साम॑। च॒। बृ॒हत्। च॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम। च॒। स्वः᳖। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। वेट्। स्वाहा॑ ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब क्या-क्या यज्ञ की सिद्धि के लिये युक्त करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! तेरे प्रजाजनों के स्वामी होने के लिये (आयुः) जिससे जीवन होता है, वह आयुर्दा (यज्ञेन) परमेश्वर और अच्छे महात्माओं के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (प्राणः) जीवन का हेतु प्राणवायु (यज्ञेन) सङ्ग करने से (कल्पताम्) समर्थ होवे, (चक्षुः) नेत्र (यज्ञेन) परमेश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (श्रोत्रम्) कान (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों, (वाक्) वाणी (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हों (मनः) संकल्पविकल्प करनेवाला मन (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (आत्मा) जो कि शरीर इन्द्रिय तथा प्राण आदि पवनों को व्याप्त होता है, वह आत्मा (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार (कल्पताम्) समर्थ हो, (ब्रह्मा) चारों वेदों का जाननेवाला विद्वान् (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (ज्योतिः) न्याय का प्रकाश (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्वः) सुख (यज्ञेन) ईश्वर वा विद्वान् के सत्कार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (पृष्ठम्) जानने की इच्छा (यज्ञेन) पठनरूप यज्ञ से (कल्पताम्) समर्थ हो, (यज्ञः) पाने योग्य धर्म (यज्ञेन) सत्यव्यवहार से (कल्पताम्) समर्थ हो, (स्तोमः) जिसमें स्तुति होती है, वह अथर्ववेद (च) और (यजुः) जिससे जीव सत्कार आदि करता है, वह यजुर्वेद (च) और (ऋक्) स्तुति का साधक ऋग्वेद (च) और (साम) सामवेद (च) और (बृहत्) अत्यन्त बड़ा वस्तु (च) और सामवेद का (रथन्तरम्) रथन्तर नामवाला स्तोत्र (च) भी ईश्वर वा विद्वा्न के सत्कार से समर्थ हो। हे (देवाः) विद्वानो ! जैसे हम लोग (अमृताः) जन्म-मरण के दुःख से रहित हुए (स्वः) मोक्षसुख को (अगन्म) प्राप्त हों तथा (प्रजापतेः) समस्त संसार के स्वामी जगदीश्वर की (प्रजाः) पालने योग्य प्रजा (अभूम) हों तथा (वेट्) उत्तम क्रिया और (स्वाहा) सत्यवाणी से युक्त (अभूम) हों, वैसे तुम भी होओ ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहाँ पूर्व मन्त्र से (ते, आधिपत्याय) इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। मनुष्य धार्मिक विद्वान् जनों के अनुकरण से यज्ञ के लिये सब समर्पण कर परमेश्वर और राजा को न्यायाधीश मान के न्यायपरायण होकर निरन्तर सुखी हों ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ किं किं यज्ञसिद्धये नियोजनीयमित्याह ॥

अन्वय:

(आयुः) एति जीवनं येन तत् (यज्ञेन) परमेश्वरस्य विदुषां च सत्कारेण (कल्पताम्) समर्थं भवतु (प्राणः) जीवनहेतुः (यज्ञेन) सङ्गतिकरणेन (कल्पताम्) (चक्षुः) नेत्रम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (श्रोत्रम्) श्रवणेन्द्रियम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (वाक्) वक्ति यया सा वाणी (यज्ञेन) (कल्पताम्) (मनः) अन्तःकरणम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (आत्मा) अतति शरीरमिन्द्रियाणि प्राणांश्च व्याप्नोति सः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (ब्रह्मा) चतुर्वेदविद्विद्वान् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (ज्योतिः) न्यायप्रकाशः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वः) सुखम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (पृष्ठम्) ज्ञातुमिच्छा (यज्ञेन) अध्ययनाख्येन (कल्पताम्) (यज्ञः) सङ्गन्तव्यो धर्मः (यज्ञेन) सत्यव्यवहारेण (कल्पताम्) (स्तोमः) स्तुवन्ति यस्मिन् सोऽथर्ववेदः (च) (यजुः) यजति येन स यजुर्वेदः (च) (ऋक्) ऋग्वेदः (च) (साम) सामवेदः (च) (बृहत्) महत् (च) (रथन्तरम्) सामस्तोत्रविशेषः (च) (स्वः) मोक्षसुखम् (देवाः) विद्वांसः (अगन्म) प्राप्नुयाम (अमृताः) जन्ममरणदुःखरहिताः सन्तः (अभूम) भवेम (प्रजापतेः) सकलसंसारस्य स्वामिनो जगदीश्वरस्य (प्रजाः) पालनीयाः (अभूम) भवेम (वेट्) सत्क्रियया (स्वाहा) सत्यया वाण्या ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! ते तव प्रजानामाधिपत्यायायुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, वाग्यज्ञेन कल्पताम्, मनो यज्ञेन कल्पताम्, आत्मा यज्ञेन कल्पताम्, ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताम्, ज्योतिर्यज्ञेन कल्पताम्, स्वर्यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्, स्तोमश्च यजुश्च ऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरं च यज्ञेन कल्पताम्। हे देवा विद्वांसो यथा वयममृताः स्वरगन्म प्रजापतेः प्रजा अभूम वेट् स्वाहायुक्ताश्चाभूम, तथा यूयमपि भवत ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वमन्त्रात् (ते, आधिपत्याय) इति पदद्वयमनुवर्त्तते। मनुष्या धार्मिकविद्वदनुकरणेन यज्ञाय सर्वं समर्प्य परमेश्वरं न्यायाधीशं राजानं च मत्वा सततं न्यायपरायणा भूत्वा सुखिनः स्युः ॥२९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. येथे पूर्वीच्या मंत्राने (ते, आधिपत्याय) या दोन पदांची अनुवृत्ती होते. माणसांनी धार्मिक विद्वान लोकांचे अनुकरण करून समर्पणवृत्तीने यज्ञ करावा. परमेश्वर व राजाला न्यायाधीश मानून न्यायपरायण बनावे व सदैव सुखी व्हावे.