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अ॒ग्निश्च॑ मे घ॒र्मश्च॑ मे॒ऽर्कश्च॑ मे॒ सूर्य॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मेऽश्वमे॒धश्च॑ मे पृथि॒वी च॒ मेऽदि॑तिश्च मे॒ दिति॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ मे॒ऽङ्गुल॑यः॒ शक्व॑रयो॒ दिश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। च॒। मे॒। घ॒र्मः। च॒। मे॒। अ॒र्कः। च॒। मे॒। सूर्यः। च॒। मे॒। प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒श्व॒मे॒धः। च॒। मे॒। पृ॒थि॒वी। च॒। मे॒। अदि॑तिः। च॒। मे॒। दितिः॑। च॒। मे॒। द्यौः। च॒। मे॒। अ॒ङ्गुल॑यः। शक्व॑रयः। दिशः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरे (अग्निः) आग (च) और उस का काम में लाना (मे) मेरा (घर्मः) घाम (च) और शान्ति (मे) मेरी (अर्कः) सत्कार करने योग्य विशेष सामग्री (च) और उसकी शुद्धि करने का व्यवहार (मे) मेरा (सूर्यः) सूर्य (च) और जीविका का हेतु (मे) मेरा (प्राणः) जीवन का हेतु वायु (च) और बाहर का पवन (मे) मेरे (अश्वमेधः) राज्यदेश (च) और राजनीति (मे) मेरी (पृथिवी) भूमि (च) और इसमें स्थिर सब पदार्थ (मे) मेरी (अदितिः) अखण्ड नीति (च) और इन्द्रियों को वश में रखना (मे) मेरी (दितिः) खण्डित सामग्री (च) और अनित्य जीवन वा शरीर आदि (मे) मेरे (द्यौः) धर्म का प्रकाश (च) और दिन-रात (मे) मेरी (अङ्गुलयः) अंगुली (शक्वरयः) शक्ति (दिशः) पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण दिशा (च) और ईशान, वायव्य, नैर्ऋत्य, आग्नेय उपदिशा ये सब (यज्ञेन) मेल करने योग्य परमात्मा से (कल्पन्ताम्) समर्थ हों ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - जो प्राणियों के सुख के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे महाशय होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अग्निः) पावकः (च) तत्प्रयोगः (मे) (घर्मः) तापः (च) शान्तिः (मे) (अर्कः) पूजनीयसामग्रीविशेषः (च) एतच्छुद्धिकरो व्यवहारः (मे) (सूर्यः) सविता (च) जीविकाहेतुः (मे) (प्राणः) जीवनहेतुः (च) बाह्यो वायुः (मे) (अश्वमेधः) राष्ट्रम् (च) राजनीतिः (मे) (पृथिवी) भूमिः (च) एतस्थाः सर्वपदार्थाः (मे) (अदितिः) अखण्डिता नीतिः (च) जितेन्द्रियत्वम् (मे) (दितिः) खण्डिता सामग्री (च) अनित्यं जीवनं शरीरादिकं वा (मे) (द्यौः) धर्मप्रकाशः (च) अहर्निशम् (मे) (अङ्गुलयः) अङ्गन्ति प्राप्नुवन्ति याभिस्ताः (शक्वरयः) शक्तयः (दिशः) (च) उपदिशः (मे) (यज्ञेन) सङ्गतिकरणयोग्येन परमात्मना (कल्पन्ताम्) ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मेऽग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे सूर्यश्च मे प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च मेऽदितिश्च मे दितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलयः शक्वरयो दिशश्च यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - ये प्राणिसुखाय यज्ञमनुतिष्ठन्ति, ते महाशयाः सन्तीति वेद्यम् ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्राण्यांच्या सुखासाठी यज्ञाचे अनुष्ठान करतात ते थोर पुरुष असतात हे जाणले पाहिजे.