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ई॒दृक्षा॑सऽएता॒दृक्षा॑सऽऊ॒ षु णः॑ स॒दृक्षा॑सः॒ प्रति॑सदृक्षास॒ऽएत॑न। मि॒तास॑श्च॒ सम्मि॑तासो नोऽअ॒द्य सभ॑रसो मरुतो य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन् ॥८४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ई॒दृक्षा॑सः। ए॒ता॒दृक्षा॑सः। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सु। नः॒। स॒दृक्षा॑स॒ इति॑ स॒ऽदृक्षा॑सः। प्रति॑सदृक्षास॒ इति॒ प्रति॑ऽसदृक्षासः। आ। इ॒त॒न॒। मि॒तासः॑। च॒। सम्मि॑तास॒ इति॒ सम्ऽमि॑तासः। नः॒। अ॒द्य। सभ॑रस॒ इति॒ सऽभ॑रसः। म॒रु॒तः॒। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन् ॥८४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:84


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले विद्वानो ! जो (ईदृक्षासः) इस लक्षण से युक्त (एतादृक्षासः) इस पहिले कहे हुओं के सदृश (सदृक्षासः) पक्षपात को छोड़ समान दृष्टिवाले (प्रतिसदृक्षासः) शास्त्रों को पढ़े हुए सत्य बोलनेवाले धर्मात्माओं के सदृश हैं, वे आप (नः) हम लोगों को (सु, आ, इतन) अच्छे प्रकार प्राप्त हों (उ) वा (मितासः) परिमाणयुक्त जानने योग्य (सम्मितासः) तुला के समान सत्य झूठ को पृथक्-पृथक् करने (च) और (अस्मिन्) इस (यज्ञे) यज्ञ में (सभरसः) अपने समान प्राणियों की पुष्टि पालना करनेवाले हों, वे (अद्य) आज (नः) हम लोगों की रक्षा करें और उनका हम लोग भी निरन्तर सत्कार करें ॥८४ ॥
भावार्थभाषाः - जब धार्मिक विद्वान् जन कहीं मिलें, जिनके समीप जावें, पढ़ावें और शिक्षा देवें, तब वे उन सब लोगों को सत्कार करने योग्य हैं ॥८४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ईदृक्षासः) एतल्लक्षणसहिताः (एतादृक्षासः) एतैः पूर्वोक्तैस्सदृशाः (उ) वितर्के (सु) सुष्ठु (नः) अस्मान् (सदृक्षासः) पक्षपातं विहाय समानदृष्टयः (प्रतिसदृक्षासः) आप्तसदृशाः (आ) (इतन) समन्तात् प्राप्नुत (मितासः) परिमितविज्ञानाः (च) (सम्मितासः) तुलावत् सत्यविवेचकाः (नः) अस्मान् (अद्य) (सभरसः) स्वसमानपोषकाः (मरुतः) ऋत्विजो विद्वांसः (यज्ञे) संगन्तव्ये व्यवहारे (अस्मिन्) ॥८४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतो विद्वांसो य ईदृक्षास एतादृक्षासस्सदृक्षासः प्रतिसदृक्षासो नोऽस्मान् स्वेतन उ मितासः सम्मितासश्चास्मिन् यज्ञे सभरसो भवताऽद्य नो रक्षत, तान् वयमपि सततं सत्कुर्याम ॥८४ ॥
भावार्थभाषाः - यदा धार्मिका विद्वांसः क्वापि मिलेयुर्यानुपागच्छेयुरध्यापयेयुः सुशिक्षेरँश्च तदेमे सर्वैः सत्कर्त्तव्याः ॥८४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या वेळी धार्मिक विद्वान लोक सर्व लोकांजवळ जातील तेव्हाच (त्यांना शिक्षण देऊन) त्यांचा सन्मान करण्यायोग्य बनवू शकतील.