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सु॒प॒र्णो᳖ऽसि ग॒रुत्मा॑न् पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्याः सी॑द। भा॒सान्तरि॑क्ष॒मापृ॑ण॒ ज्योति॑षा॒ दिव॒मुत्त॑भान॒ तेज॑सा॒ दिश॒ऽउद्दृ॑ꣳह ॥७२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒प॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॒निति॑ ग॒रुत्मा॑न्। पृ॒ष्ठे। पृ॒थि॒व्याः। सी॒द॒। भा॒सा। अ॒न्तरि॑क्षम्। आ। पृ॒ण॒। ज्योति॑षा। दिव॑म्। उत्। स्त॒भा॒न॒। तेज॑सा। दिशः॑। उत्। दृ॒ꣳह॒ ॥७२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:72


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् योगीजन ! आप (भासा) प्रकाश से (सुपर्णः) अच्छे-अच्छे पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त और (गरुत्मान्) बड़े मन तथा आत्मा के बल से युक्त (असि) हैं, अतिप्रकाशमान आकाश में वर्त्तमान सूर्यमण्डल के तुल्य (पृथिव्याः) पृथिवी के (पृष्ठे) ऊपर (सीद) स्थिर हो, वा वायु के तुल्य प्रजा को (आ, पृण) सुख दे, वा जैसे सूर्य (ज्योतिषा) अपने प्रकाश से (दिवम्) प्रकाशमय (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को वैसे तू राजनीति के प्रकाश से राज्य को (उत्, स्तभान) उन्नति पहुँचा, वा जैसे आग अपने (तेजसा) अतितीक्ष्ण तेज से (दिशः) दिशाओं को वैसे अपने तीक्ष्ण तेज से प्रजाजनों को (उद्, दृंह) उन्नति दे ॥७२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राग=प्रीति और द्वेष=वैर से रहित परोपकारी होकर, ईश्वर के समान सब प्राणियों के साथ वर्ते, तब सब सिद्धि को प्राप्त होवे ॥७२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

(सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पूर्णानि शुभलक्षणानि यस्य सः (असि) (गरुत्मान्) गुर्वात्मा (पृष्ठे) उपरि (पृथिव्याः) (सीद) (भासा) प्रकाशेन (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (आ) समन्तात् (पृण) सुखय (ज्योतिषा) न्यायप्रकाशेन (दिवम्) प्रकाशमयम् (उत्) ऊर्ध्वम् (स्तभान) (तेजसा) तीक्ष्णीकरणेन (दिशः) (उत्) (दृंह) उद्वर्धय ॥७२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् योगिंस्त्वं भासा सुपर्णो गरुत्मानसि, यथा सवितान्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तते, तथा पृथिव्याः पृष्ठे सीद। वायुरिव प्रजा आपृण, सविता ज्योतिषा दिवमन्तरिक्षमिव राज्यमुत्तभान, अग्निस्तेजसा दिश इव प्रजा उद्दृंह ॥७२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्यो रागद्वेषरहितः परोपकारीश्वर इव प्राणिभिः सह वर्त्तेत, तदा सिद्धिं लभेत ॥७२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा माणूस राग, द्वेष सोडून परोपकारी बनतो व ईश्वराप्रमाणे सर्व प्राण्यांबरोबर वागतो तेव्हा त्याला सिद्धी प्राप्त होतात.