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नक्तो॒षासा॒ सम॑नसा॒ विरू॑पे धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेक॑ꣳ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मोऽअ॒न्तर्विभा॑ति दे॒वाऽअ॒ग्निं॑ धा॑रयन् द्रविणो॒दाः ॥७० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नक्तो॒षासा॑। नक्तो॒षसेति॒ नक्तो॒षसा॑। सम॑न॒सेति॒ सऽम॑नसा। विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे। धा॒पये॑ते॒ इति॑ धा॒पये॑ते। शिशु॑म्। एक॑म्। स॒मी॒ची इति॑ सम्ऽई॒ची। द्यावा॒क्षामा॑। रु॒क्मः। अ॒न्तः। वि। भा॒ति॒। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः ॥७० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:70


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जैसे (समनसा) एक से विज्ञानयुक्त (समीची) एकता चाहती हुई (विरूपे) अलग-अलग रूपवाली धाय और माता दोनों (एकम्) एक (शिशुम्) बालक को दुग्ध पिलाती हैं, वैसे (नक्तोषासा) रात्रि और प्रातःकाल की वेला जगत् को (धापयेते) दुग्ध सा पिलाती हैं अर्थात् अति आनन्द देती हैं वा जैसे (रुक्मः) प्रकाशमान अग्नि (द्यावाक्षामा, अन्तः) ब्रह्माण्ड के बीच में (वि, भाति) विशेष करके प्रकाश करता है, उस (अग्निम्) अग्नि को (द्रविणोदाः) द्रव्य के देनेवाले (देवाः) शास्त्र पढ़े हुए जन (धारयन्) धारण करते हैं, वैसे वर्त्ताव वर्त्तो ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे संसार में रात्रि और प्रातःसमय की वेला अलग रूपों से वर्त्तमान और जैसे बिजुली अग्नि सर्व पदार्थों में व्याप्त वा जैसे प्रकाश और भूमि अतिसहनशील हैं, वैसे अत्यन्त विवेचना करने और शुभगुणों में व्यापक होनेवाले होकर पुत्र के तुल्य संसार को पालें ॥७० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(नक्तोषासा) रात्र्युषसाविव (समनसा) समानं मनो विज्ञानं ययोस्ते (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (धापयेते) पाययतः (शिशुम्) बालकमिव वर्त्तमानं जगत् (एकम्) असहायम् (समीची) ये एकीभावमिच्छन्तस्ते (द्यावाक्षामा) (रुक्मः) देदीप्यमानोऽग्निः (अन्तः) मध्ये (वि, भाति) विशेषेण प्रकाशते (देवाः) विद्वांसः (अग्निम्) (धारयन्) अधारयन्। अत्राडभावः (द्रविणोदाः) द्रव्यप्रदातारः ॥७० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं यथा समनसा समीची विरूपे मातृधात्र्यौ वैकं शिशुमिव नक्तोषासा जगद्धापयेते, यथा वा द्यावाक्षामान्तो रुक्मो विभाति, द्रविणोदा देवा तमग्निं धारयँस्तथा वर्त्तध्वम् ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्जगति यथा रात्र्युषसौ विरुद्धै रूपैर्वर्त्तेते, यथा च विद्युत् सर्वपदार्थेषु व्याप्ता, यथा वा द्यावाभूमी अतिसहनशीले वर्त्तेते, तद्वत् विवेचकैः शुभगुणेषु व्यापकैर्भूत्वा पुत्रवज्जगत्पालनीयम् ॥७० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या सृष्टीत रात्र व दिवस वेगवेगळ्या रूपांत विद्यमान आहेत व जसे विद्युत सर्व पदार्थांत व्याप्त असते किंवा जशी भूमी व प्रकाश अति सहनशील असतात तसे माणसांनी विचारपूर्वक अत्यंत शुभगुणयुक्त बनून पुत्राप्रमाणे जगाचे पालन करावे.