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वाज॑स्य मा प्रस॒वऽउ॑द्ग्रा॒भेणोद॑ग्रभीत्। अधा॑ स॒पत्ना॒निन्द्रो॑ मे निग्रा॒भेणाध॑राँ२ऽअकः ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वाज॑स्य। मा॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः उ॒द्ग्रा॒भेणेत्यु॑त्ऽग्रा॒भेण॑। उत्। अ॒ग्र॒भी॒त्। अध॑। स॒पत्ना॒निति॑ स॒ऽपत्ना॑न्। इन्द्रः॑। मे॒। नि॒ग्रा॒भेणेति॑ निऽग्रा॒भेण॑। अध॑रान्। अ॒क॒रित्य॑कः ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (इन्द्रः) पालन करनेवाला (वाजस्य) विशेष ज्ञान का (प्रसवः) उत्पन्न करनेवाला ईश्वर (मा) मुझे (उद्ग्राभेण) अच्छे ग्रहण करने के साधन से (उद्, अग्रभीत्) ग्रहण करे, वैसे जो (अध) इसके पीछे उसके अनुसार पालना करने और विशेष ज्ञान सिखानेवाला पुरुष (मे) मेरे (सपत्नान्) शत्रुओं को (निग्राभेण) पराजय से (अधरान्) नीचे गिराया (अकः) करे, उसको तुम लोग भी सेनापति करो ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर पालना करे, वैसे जो मनुष्य पालना के लिये धार्मिक मनुष्यों को अच्छे प्रकार ग्रहण करते और दण्ड देने के लिये दुष्टों को निग्रह अर्थात् नीचा दिखाते हैं, वे ही राज्य कर सकते हैं ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(वाजस्य) विज्ञानस्य (मा) माम् (प्रसवः) उत्पादकः (उद्ग्राभेण) उत्कृष्टतया गृह्णाति येन तेन (उत्) (अग्रभीत्) (अध) अथ। अत्र निपातस्य च [अष्टा०६.३.१३६] इति दीर्घः। (सपत्नान्) शत्रून् (इन्द्रः) पतिः (मे) मम (निग्राभेण) निग्रहेण (अधरान्) अधःपतितान् (अकः) कुर्यात् ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथेन्द्रो वाजस्य प्रसवो मा मामुद्ग्राभेणोद्ग्रभीत्। तथाऽधाऽथ यो मे मम सपत्नान् निग्राभेणाधरानकस्तं यूयमपि सेनापतिं कुरुत ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरस्तथा ये मनुष्याः पालनाय धार्मिकान् मनुष्यान् संगृह्णन्ति, ताडनाय दुष्टाँश्च निगृह्णन्ति, त एव राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ईश्वर सर्वांचे पालन करतो तसे पालन करण्यासाठी धार्मिक माणसांना मान्यता देऊन दुष्टांना शिक्षा करतात तेच राजे राज्य करू शकतात.