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इन्द्र॑ऽआसां ने॒ता बृह॒स्पति॒र्दक्षि॑णा य॒ज्ञः पु॒रऽए॑तु॒ सोमः॑। दे॒व॒से॒नाना॑मभिभञ्जती॒नां जय॑न्तीनां म॒रुतो॑ य॒न्त्वग्र॑म् ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। आ॒सा॒म्। ने॒ता। बृह॒स्पतिः॑। दक्षि॑णा। य॒ज्ञः। पु॒रः। ए॒तु॒। सोमः॑। दे॒व॒से॒नाना॒मिति॑ देवऽसे॒नाना॑म्। अ॒भि॒भ॒ञ्ज॒ती॒नामित्य॑भिऽभञ्जती॒नाम्। जय॑न्तीनाम्। म॒रुतः॑। य॒न्तु॒। अग्र॑म् ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - युद्ध में (अभिभञ्जतीनाम्) शत्रुओं की सेनाओं को सब ओर से मारती (जयन्तीनाम्) और शत्रुओं को जीतने से उत्साह को प्राप्त होती हुई (आसाम्) इन (देवसेनानाम्) विद्वानों की सेनाओं का (नेता) नायक (इन्द्रः) उत्तम ऐश्वर्यवाला शिक्षक सेनापति पीछे (यज्ञः) सब को मिलनेवाला (पुरः) प्रथम (बृहस्पतिः) सब अधिकारियों का अधिपति (दक्षिणा) दाहिनी ओर और (सोमः) सेना को प्रेरणा अर्थात् उत्साह देनेवाला बार्इं ओर (एतु) चले तथा (मरुतः) पवनों के समान वेगवाले बली शूरवीर (अग्रम्) आगे को (यन्तु) जावें ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - जब राजपुरुष शत्रुओं के साथ युद्ध किया चाहें, तब सब दिशाओं में अध्यक्ष तथा शूरवीरों को आगे और डरपनेवालों को बीच में ठीक स्थापन कर भोजन, आच्छादन, वाहन, अस्त्र और शस्त्रों के योग से युद्ध करें और वहाँ विद्वानों की सेना के आधीन मूर्खों की सेना करनी चाहिये। उन सेनाओं को विद्वान् लोग अच्छे उपदेश से उत्साह देवें और सेनाध्यक्षादि पद्मव्यूह आदि बाँध के युद्ध करावें ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः सेनापतिः शिक्षकः (आसाम्) प्रत्यक्षाणाम् (नेता) नायकः (बृहस्पतिः) बृहतामधिकाराणामध्यक्षः (दक्षिणा) दक्षिणस्यां दिशि (यज्ञः) संगन्ता (पुरः) पूर्वम् (एतु) गच्छतु (सोमः) सेनाप्रेरकः (देवसेनानाम्) विदुषां सेनानाम् (अभिभञ्जतीनाम्) शत्रुसेनानामभितो मर्दनमाचरन्तीनाम् (जयन्तीनाम्) शत्रुविजयेनोत्कर्षन्तीनाम् (मरुतः) वायुवद् बलिष्ठाः शूरवीराः (यन्तु) गच्छन्तु (अग्रम्) ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - युद्धेऽभिभञ्जतीनां जयन्तीनामासां देवसेनानां नेतेन्द्रः पश्चाद् यज्ञः पुरो बृहस्पतिर्दक्षिणा सोम उत्तरस्यां चैतु मरुतोऽग्रं यन्तु ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - यदा राजपुरुषाः शत्रुभिर्युयुत्सेयुस्तदा सर्वासु दिक्ष्वध्यक्षान् शूरवीरानग्रतो भीरूनन्तःसंस्थाप्य भोजनाच्छादनवाहनास्त्रशस्त्रयोगेन युध्येरन्। तत्र विद्वत्सेनाधीना मूर्खसेनाः कार्याः। ता विद्वांसो वक्तृत्वेनोत्साहयेयुरध्यक्षाश्च पद्मव्यूहादिभिर्योधयेयुः ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा राजपुरुषांना शत्रूंबरोबर युद्ध करावयाचे असेल तेव्हा त्यांनी सर्व दिशांना प्रथम सेनानायक ठेवावेत. त्यानंतर शूर वीर नियुक्त करावेत, भित्र्या लोकांना मध्यभागी नियुक्त करावे. भोजन, वस्त्र, वाहन यांची व्यवस्था करून अस्त्रशस्त्रांच्या साह्याने युद्ध करावे. शूर व बुद्धिमान माणसांच्या आधीन मूर्खांची सेना ठेवावी. विद्वान लोकांनी चांगला उपदेश करून सेनेला उत्साहित करावे. सेनाध्यक्ष इत्यादींनी पद्मव्यूह इत्यादींची रचना करून युद्ध करावे.