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स॒मु॒द्रस्य॒ त्वाव॑क॒याग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा॒। अव॑कया। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभापति को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी सभापते ! जैसे हम लोग (समुद्रस्य) आकाश के बीच (अवकया) जिससे रक्षा करते हैं, उस क्रिया के साथ वर्त्तमान (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रकर्त्ता आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग समुद्र के जीवों की रक्षा कर सुखी करते हैं, वैसे धर्मात्मा रक्षक सभापति अपनी प्रजाओं की रक्षा कर निरन्तर सुखी करें ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभापतिना किं कार्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य मध्ये (त्वा) त्वाम् (अवकया) यया अवन्ति रक्षन्ति तया क्रियया (अग्ने) अग्निवद् वर्त्तमान सभापते (परि) सर्वतः (व्ययामसि) प्राप्ताः स्मः (पावकः) पवित्रकारकः (अस्मभ्यम्) (शिवः) मङ्गलकारी (भव) ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! यथा वयं समुद्रस्यावकया सह वर्त्तमानं त्वा परिव्ययामसि, तथा पावकस्त्वमस्मभ्यं शिवो भव ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः समुद्रस्थान् जन्तून् रक्षित्वा सुखयन्ति, तथा धार्मिको रक्षकः सभेशः स्वकीयाः प्रजाः संरक्ष्य सततं सुखयेत् ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे जसे समुद्रातील जीवांचे रक्षण करून त्यांना सुखी करतात, तसेच धर्मात्मा रक्षक राजाने आपल्या प्रजेचे रक्षण करून त्यांना सदैव सुखी ठेवावे.