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न तं वि॑दाथ॒ यऽइ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव। नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ऽउक्थ॒शास॑श्चरन्ति ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। तम्। वि॒दा॒थ॒। यः। इ॒मा। ज॒जान॑। अ॒न्यत्। यु॒ष्माक॑म्। अन्तर॑म्। ब॒भू॒व॒। नी॒हा॒रेण॑। प्रावृ॑ताः। जल्प्या॑। च॒। अ॒सु॒तृप॒ इत्य॑सु॒ऽतृपः॑। उ॒क्थ॒शासः॑। उ॒क्थ॒शस॒ इत्यु॑क्थ॒ऽशसः॑। च॒र॒न्ति॒ ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्म के न जाननेवाले पुरुष (नीहारेण) धूम के आकार कुहर के समान अज्ञानरूप अन्धकार से (प्रावृताः) अच्छे प्रकार ढके हुए (जल्प्या) थोड़े सत्य-असत्य वादानुवाद में स्थिर रहनेवाले (असुतृपः) प्राणपोषक (च) और (उक्थशासः) योगाभ्यास को छोड़ शब्द-अर्थ के सम्बन्ध के खण्डन-मण्डन में रमण करते हुए (चरन्ति) विचरते हैं, वैसे तुम लोग (तम्) उस परमात्मा को (न) नहीं (विदाथ) जानते हो (यः) जो (इमा) इन प्रजाओं को (जजान) उत्पन्न करता और जो ब्रह्म (युष्माकम्) तुम अधर्मी अज्ञानियों के सकाश से (अन्यत्) अर्थात् कार्य्यकारणरूप जगत् और जीवों से भिन्न (अन्तरम्) तथा सबों में स्थित भी दूरस्थ (बभूव) होता है, उस अतिसूक्ष्म आत्मा अर्थात् परमात्मा को नहीं जानते हो ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष ब्रह्मचर्य्य आदि व्रत, आचार, विद्या, योगाभ्यास, धर्म के अनुष्ठान, सत्सङ्ग और पुरुषार्थ से रहित हैं, वे अज्ञानरूप अन्धकार में दबे हुए, ब्रह्म को नहीं जान सकते। जो ब्रह्म जीवों से पृथक्, अन्तर्यामी, सब का नियन्ता और सर्वत्र व्याप्त है, उसके जानने को जिनका आत्मा पवित्र है, वे ही योग्य होते हैं, अन्य नहीं ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(न) निषेधे (तम्) परमात्मानम् (विदाथ) जानीथ। लेट्प्रयोगः (यः) (इमा) इमानि भूतानि (जजान) जनयति (अन्यत्) कार्यकारणजीवेभ्यो भिन्नं ब्रह्म (युष्माकम्) अधार्मिकाणामविदुषाम् (अन्तरम्) मध्ये स्थितमपि दूरस्थमिव (बभूव) भवति (नीहारेण) धूमाकारेण कुहकेनेवाज्ञानेन (प्रावृताः) प्रकृष्टतयाऽऽवृता आच्छन्नाः सन्तः (जल्प्या) जल्पेषु सत्यासत्यवादानुवादेषु भवाः। अत्र सुपां सुलुग्० [अष्टा०७.१.३९] इति विभक्तेराकारादेशः (च) (असुतृपः) येऽसुषु प्राणेषु तृप्यन्ति ते (उक्थशासः) ये योगाभ्यासं विहाय उक्थानि वचनानि शंसन्ति तेऽर्थात् शब्दार्थयोः खण्डने रताः (चरन्ति) व्यवहरन्ति ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽब्रह्मविदो जना नीहारेण चाज्ञाने प्रावृता जल्प्या असुतृपश्चोक्थशासश्चरन्ति, तथाभूतां यूयं तं न विदाथ य इमा जजान। यद् ब्रह्म युष्माकं सकाशादन्यदन्तरं बभूव, तदतिसूक्ष्ममात्मन आत्मभूतं न विदाथ ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - ये ब्रह्मचर्य्यादिव्रताचारविद्यायोगाभ्यासधर्मानुष्ठानसत्सङ्गपुरुषार्थरहितास्तेऽज्ञानान्धकारावृताः सन्तो ब्रह्म ज्ञातुं न शक्नुवन्ति। यद् ब्रह्म जीवादिभ्यो भिन्नमन्तर्यामिसकलनियन्तृ सर्वत्र व्याप्तमस्ति, तज्ज्ञातुं पवित्रात्मान एवार्हन्ति नेतरे ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पुरुष ब्रह्मचर्य, विद्या, योगाभ्यासरहित आहेत, तसेच धर्माचे अनुष्ठान, सत्संग व पुरुषार्थ करत नाहीत ते अज्ञानरूपी अंधकारात बुडालेले असतात. असे लोक ब्रह्माला जाणू शकत नाहीत. जो ब्रह्म सर्वांचा नियंता, सर्वत्र व्यापक, अंतर्यामी असून जीवांहून भिन्न असतो त्याला पवित्र आत्मेच जाणू शकतात. इतर लोक जाणू शकत नाहीत.