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ऋ॒तव॑ स्थऽऋता॒वृध॑ऽऋतु॒ष्ठा स्थ॑ऽऋता॒वृधः॑। घृ॒त॒श्च्युतो॑ मधु॒श्च्युतो॑ वि॒राजो॒ नाम॑ काम॒दुघा॒ऽअक्षी॑यमाणाः ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तवः॑। स्थ॒। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। ऋ॒तु॒ष्ठाः। ऋ॒तु॒स्था इत्यृ॑तु॒ऽस्थाः। स्थ॒। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। घृ॒त॒श्च्युत॒ इति॑ घृत॒ऽश्च्युतः॑। म॒धु॒श्च्युत॒ इति॑ मधु॒ऽश्च्युतः॑। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजः॑। नाम॑। का॒म॒दुघा॒ इति॑ काम॒दुघा॑। अक्षी॑यमाणाः ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:3


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री लोग पति आदि के साथ कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियो ! जो तुम लोग (ऋतवः) वसन्तादि ऋतुओं के समान (स्थ) हो तथा जो (ऋतावृधः) उदक से नदियों के तुल्य सत्य के साथ उन्नति को प्राप्त होने वा (ऋतुष्ठाः) वसन्तादि ऋतुओं में स्थित होने और (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ानेवाली (स्थ) हो और जो तुम (घृतश्च्युतः) जिनसे घी निकले उन (मधुश्च्युतः) मधुर रस से प्राप्त हुई (अक्षीयमाणाः) रक्षा करने योग्य (विराजः) विविध प्रकार के गुणों से प्रकाशमान तथा (कामदुघाः) कामनाओं को पूरण करनेहारी (नाम) प्रसिद्ध गौओं के सदृश होवे, तुम लोग हम लोगों को सुखी करो ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋतु और गौ अपने-अपने समय पर अनुकूलता से सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे ही अच्छी स्त्रियाँ सब समय में अपने पति आदि सब पुरुषों को तृप्त कर आनन्दित करें ॥३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रियः पत्यादिभिः सह कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(ऋतवः) यथा वसन्तादयस्तथा (स्थ) भवत (ऋतावृधः) या ऋतेन जलेन नद्य इव सत्येन वर्द्धन्ते ताः। अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा०६.३.१३७] इति दीर्घः (ऋतुष्ठाः) या ऋतुषु वसन्तादिषु तिष्ठन्ति ताः (स्थ) भवत (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं वर्धयन्ति ताः (घृतश्च्युतः) घृतमाज्यं श्च्युतं निस्सृतं याभ्यस्ताः (मधुश्च्युतः) या मधुनो मधुरात् रसात् प्राप्ताः (विराजः) विविधैर्गुणै राजमानाः प्रकाशमानाः (नाम) प्रसिद्धाः (कामदुघाः) याः कामान् दुहन्ति प्रपिपुरति ताः (अक्षीयमाणाः) क्षेतुमनर्हाः ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियः ! या यूयं ऋतवः स्थ, या ऋतावृध ऋतुष्ठा ऋतावृधः स्थ, याश्च यूयं घृतश्च्युतो मधुश्च्युतोऽक्षीयमाणा विराजः कामदुघा नाम धेनव इव स्थ, ता अस्मान् सुखयत ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ऋतवो गावश्च स्वस्वसमयानुकूलतया सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति, तथैव सत्यस्त्रियः प्रतिसमयं स्वपत्यादीन् सर्वान् संतर्प्यानन्दयन्तु ॥३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ऋतू व गाई काळानुसार सर्व प्राण्यांना सुखी करतात तसे चांगल्या स्त्रियांनी सर्वकाळी आपल्या पतींना तृप्त करून आनंदित करावे.