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चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑नेऽअजन॒न्नम्न॑माने। य॒देदन्ता॒ऽअद॑दृहन्त॒ पूर्व॒ऽआदिद् द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॑प्रथेताम् ॥२५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चक्षु॑षः। पि॒ता। मन॑सा। हि। धीरः॑। घृ॒तम्। ए॒न॒ऽइत्ये॑ने। अ॒ज॒न॒त्। नम्न॑माने॒ऽइति॒ नम्न॑माने। य॒दा। इत्। अन्ताः॑। अद॑दृहन्त। पूर्वें॑। आत्। इत्। द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒प्र॒थे॒ता॒म् ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:25


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजा के पुरुषो ! आप लोग जो (चक्षुषः) न्याय दिखानेवाले उपदेशक का (पिता) रक्षक (मनसा) योगाभ्यास से शान्त अन्तःकरण (हि) ही से (धीरः) धीरजवान् (घृतम्) घी को (अजनत्) प्रकट करता है, उसको अधिकार देके (एने) राजा और प्रजा के दल (नम्नमाने) नम्न के तुल्य आचरण करते हुए (पूर्वे) पहिले से वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश और पृथिवी के समान मिले हुए जैसे (अप्रथेताम्) प्रख्यात होवे, वैसे (इत्) ही (यदा) जब (अन्ताः) अन्त्य के अवयवों के तुल्य (अददृहन्त) वृद्धि को प्राप्त हों, तब (आत्) उसके पश्चात् (इत्) ही स्थिरराज्यवाले होओ ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य राज और प्रजा के व्यवहार में एकसम्मति होकर सदा प्रयत्न करें, तभी सूर्य और पृथिवी के तुल्य स्थिर सुखवाले होवें ॥२५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(चक्षुषः) न्यायदर्शकस्य (पिता) पालकः (मनसा) योगाभ्यासेन शान्तान्तःकरणेन (हि) खलु (धीरः) धैर्य्यवान् (घृतम्) आज्यम् (एने) राजप्रजादले (अजनत्) प्रकटयेत् (नम्नमाने) ये नम्न इवाचरतस्ते। अत्राचारे क्विप् व्यत्ययेनात्मनेपदम् (यदा) (इत्) एव (अन्ताः) अन्तावयवाः (अददृहन्त) वर्द्धेरन्। अत्र दृंह धातोर्लटि झादेशे कृते शपः श्लुस्ततो द्वित्वम् (पूर्वे) प्रथमतो वर्त्तमाने (आत्) अनन्तरम् (इत्) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी इव संगते (अप्रथेताम्) प्रख्याते भवेताम् ॥२५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजाजनाः ! भवन्तो यश्चक्षुषः पिता मनसा हि धीरो घृतमजनत्, तमधिकृत्य एने नम्नमाने पूर्वे द्यावापृथिवी अप्रथेतामिव यदेदन्ता इवाददृहन्त, तथाऽऽदित् स्थिरराज्या भवेयुः ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्या राजप्रजाव्यवहार एकसम्मतयो भूत्वा सदैव प्रयतेरंस्तदा सूर्यपृथिवीवत् स्थिरसुखा भवेयुः ॥२५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा राजा व प्रजा यांच्या व्यवहारात एकवाक्यता असते व प्रयत्नशीलता असते तेव्हा सूर्य व पृथ्वीप्रमाणे त्यांना स्थिर सुख प्राप्त होते हे माणसांनी जाणावे.