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अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ यास॒द्विश्वं॒ न्य᳕त्रिण॑म्। अ॒ग्निर्नो॑ वनते र॒यिम् ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः ति॒ग्मेन॑। शो॒चिषा॑। यास॑त्। विश्व॑म्। नि। अ॒त्रिण॑म्। अ॒ग्निः। नः॒। व॒न॒ते॒। र॒यिम् ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् पुरुष ! जैसे (अग्निः) अग्नि (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) प्रकाश से (अत्रिणम्) भोगने योग्य (विश्वम्) सबको (यासत्) प्राप्त होता है कि जैसे (अग्निः) विद्युत् अग्नि (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन को (नि, वनते) निरन्तर विभागकर्त्ता है, वैसे हमारे लिये आप भी हूजिये ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि जैसे अग्नि अपने तेज से सूखे गीले सब तृणादि को जला देता है, वैसे हमारे सब दोषों को भस्म कर गुणों को प्राप्त करें। जैसे बिजुली सब पदार्थों का सेवन करती है, वैसे हम को सब विद्या का सेवन करा के अविद्या से पृथक् किया करें ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(अग्निः) विद्युत् (तिग्मेन) तीव्रेण (शोचिषा) प्रकाशेन (यासत्) प्राप्नोति (विश्वम्) सर्वम् (नि) (अत्रिणम्) अत्तुं भोक्तुं योग्यम् (अग्निः) (नः) अस्मभ्यम् (वनते) विभजति (रयिम्) द्रव्यम् ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथाऽग्निस्तिग्मेन शोचिषा विश्वमत्रिणं यासत्, यथाग्निर्विद्युन्नो रयिं निवनते, तथा त्वमस्मदर्थं भव ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्यथा पावकः स्वतेजसा शुष्कमशुष्कं तृणादिकं दहति, तथाऽस्माकं सर्वान् दोषान् दग्ध्वा गुणाः प्रापणीयाः। यथा विद्युत् सर्वान् पदार्थान् सेवते, तथास्मभ्यं सर्वा विद्यां सेवयित्वा वयमविद्यायाः पृथक्करणीयाः ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अग्नी जसा आपल्या तीव्र तेजाने ओले व सुकलेले तृण वगैरेंना जाळतो तसे विद्वानांनी आमच्या सर्व दोषांना भस्म करून गुण प्रकट करावेत. जशी विद्युत सर्व पदार्थांत व्याप्त असते तसे विद्वानांनी आम्हा सर्वांना विद्या शिकवून अविद्या दूर करावी व सर्वांना विद्वान करावे.