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अश्म॒न्नूर्जं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णाम॒द्भ्यऽओष॑धीभ्यो॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽअधि॒ सम्भृ॑तं॒ पयः॑। तां न॒ऽइष॒मूर्जं॑ धत्त मरुतः सꣳररा॒णाऽअश्म॑ꣳस्ते॒ क्षुन् मयि॑ त॒ऽऊर्ग्यं॑ द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्म॑न्। ऊर्ज॑म्। पर्व॑ते। शि॒श्रि॒या॒णाम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। वन॒स्पति॑भ्य इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः अधि॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पयः॑। ताम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। ध॒त्त॒। म॒रु॒तः॒। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽरराणाः। अश्म॑न्। ते॒। क्षुत्। मयि॑। ते॒। ऊर्क्। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सत्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है ॥ इसके पहिले मन्त्र में वर्षा की विद्या का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (संरराणाः) सम्यक् दानशील (मरुतः) वायुओं के तुल्य क्रिया करने में कुशल मनुष्यो ! तुम लोग (पर्वते) पहाड़ के समान आकारवाले (अश्मन्) मेघ के (शिश्रियाणाम्) अवयवों में स्थिर बिजुली तथा (ऊर्जम्) पराक्रम और अन्न को (नः) हमारे लिये (अधि, धत्त) अधिकता से धारण करो और (अद्भ्यः) जलाशयों (ओषधिभ्यः) जौ आदि ओषधियों और (वनस्पतिभ्यः) पीपल आदि वनस्पतियों से (सम्भृतम्) सम्यक् धारण किये (पयः) रसयुक्त जल (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम और (ताम्) उस पूर्वोक्त विद्युत् को धारण करो। हे मनुष्य ! जो (ते) तेरा (अश्मन्) मेघविषय में (ऊर्क्) रस वा पराक्रम है, सो (मयि) मुझ में तथा जो (ते) तेरी (क्षुत्) भूख है, वह मुझ में भी हो अर्थात् समान सुख-दुःख मान के हम लोग एक दूसरे के सहायक हों और (यम्) जिस दुष्ट को हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त हो ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य जलाशय और ओषध्यादि से रस का हरण कर मेघमण्डल में स्थापित करके पुनः वर्षाता है, उससे अन्नादि पदार्थ होते हैं, उसके भोजन से क्षुधा की निवृत्ति, क्षुधा की निवृत्ति से बल की बढ़ती, उससे दुष्टों की निवृत्ति और दुष्टों की निवृत्ति से सज्जनों के शोक का नाश होता है, वैसे अपने समान दूसरों का सुख-दुःख मान, सब के मित्र होके, एक-दूसरे के दुःख का विनाश करके, सुख की निरन्तर उन्नति करें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वृष्टिविद्योपदिश्यते

अन्वय:

(अश्मन्) अश्मनि मेघे। अश्मेति मेघनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१०) (ऊर्जम्) पराक्रमम् (पर्वते) पर्वताकारे (शिश्रियाणाम्) मेघावयवानां मध्ये स्थितां विद्युतम् (अद्भ्यः) जलाशयेभ्यः (ओषधीभ्यः) यवादिभ्यः (वनस्पतिभ्यः) अश्वत्थादिभ्यः (अधि) (सम्भृतम्) सम्यग् धृतं (पयः) रसयुक्तं जलम् (ताम्) (नः) अस्मभ्यम् (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (धत्त) धरत (मरुतः) वायव इव क्रियाकुशला मनुष्याः (संरराणाः) सम्यग् रान्ति ददति ते (अश्मन्) अश्मनि (ते) तव (क्षुत्) बुभुक्षा (मयि) (ते) तव (ऊर्क्) पराक्रमोऽन्नं वा (यम्) दुष्टम् (द्विष्मः) न प्रसादयेम (तम्) (ते) तव (शुक्) शोकः (ऋच्छतु) प्राप्नोतु ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे संरराणा मरुतः ! यूयं पर्वतेऽश्मन् शिश्रियाणामूर्जं नोऽधिधत्त, अद्भ्य ओषधीभ्यो वनस्पतिभ्यः सम्भृतं पय इषमूर्जं च ताश्च धत्त। हे मनुष्य ! तेऽश्मन्नूर्ग् वर्त्तते, सा मय्यस्तु, या ते क्षुत् सा मयि भवतु, यं वयं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यथा सूर्यो जलाशयौषध्यादिभ्यो रसं हृत्वा मेघमण्डले संस्थाप्य पुनर्वर्षयति, ततोऽन्नादिकं जायते, तदशनेन क्षुन्निवृत्त्या बलोन्नतिस्तया दुष्टानां निवृत्तिरेतया सज्जनानां शोकनाशो भवति, तथा समानसुखदुःखसेवनाः सुहृदो भूत्वा परस्परेषां दुःखं विनाश्य सुखं सततमुन्नेयम् ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सूर्य जसा जलाशय वृक्ष यांचा रस शोषून त्यापासून मेघांची निर्मिती करतो व पुन्हा पर्जन्यरूपाने बरसतो. त्यामुळे अन्न इत्यादी पदार्थ उत्पन्न होतात. त्या अन्नाने क्षुधानिवृत्ती होते. क्षुधानिवृत्ती झाल्यामुळे बल वाढते व बलामुळे दुष्टांचा नाश होतो, त्यामुळे सज्जनांचे दुःख नाहीसे होते. त्यामुळे आपल्यासारखेच दुसऱ्यांचेही सुख-दुःख असते हे मानले पाहिजे. सर्वांनी एकमेकांचे मित्र बनून परस्परांच्या दुःखाचा नाश केला पाहिजे व सतत सुख वाढवीत राहिले पाहिजे.