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नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये पृ॑थि॒व्यां येषा॒मन्न॒मिष॑वः। तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥६६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। अ॒स्तु॒। रु॒द्रेभ्यः॑। ये। पृ॒थि॒व्याम्। येषा॑म्। अन्न॑म्। इष॑वः। तेभ्यः॑। दश॑। प्राचीः॑। दश॑। द॒क्षि॒णाः। दश॑। प्र॒तीचीः॑। दश॑। उदी॑चीः। दश॑। ऊ॒र्ध्वाः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥६६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:66


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो भूविमान आदि में बैठे के (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में विचरते हैं (येषाम्) जिन के (अन्नम्) खाने योग्य तण्डुलादि (इषवः) बाणरूप हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को व्याप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी सब ओर से (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हम को (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे और हम लोग (यम्) जिसको (द्विष्मः) अप्रसन्न करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उस को (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाड़ी के मुख में मूषे के तुल्य पीड़ा में (दध्मः) डालें ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - जो पृथिवी पर अन्नार्थी पुरुष हैं, उन का अच्छे प्रकार पोषण कर उन्नति करनी चाहिये ॥६६ ॥ इस अध्याय में वायु, जीव, ईश्वर और वीरपुरुष के गुण तथा कृत्य का वर्णन होने से इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय में कहे अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये षोडशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(नमः) (अस्तु) (रुद्रेभ्यः) (ये) (पृथिव्याम्) विस्तृतायां भूमौ (येषाम्) (अन्नम्) तण्डुलादिकमत्तव्यमिव (इषवः) शस्त्रास्त्राणि। तेभ्य इति पूर्ववत् ॥६६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये भूविमानादिषु स्थित्वा पृथिव्यां विचरन्ति, येषामन्नमिषवस्तेभ्यो रुद्रेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, ये दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वा व्याप्तवन्तः सन्ति, तेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, ते नः सर्वतोऽवन्तु, ते नो मृडयन्तु, ते वयं च यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - ये पृथिव्यामन्नार्थिनस्तान् संपोष्य वर्द्धनीयाः ॥६६ ॥ अस्मिन्नध्याये वायुजीवेश्वरवीरगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्र्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या पृथ्वीवर ज्यांना अन्नाची गरज आहे त्यांचे चांगल्या प्रकारे पोषण करून त्यांना उन्नत करावे.