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नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये᳕ऽन्तरि॑क्षे॒ येषां॒ वात॒ऽइष॑वः। तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥६५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। अ॒स्तु॒। रु॒द्रेभ्यः॑। ये। अ॒न्तरि॑क्षे। येषा॑म्। वातः॑। इष॑वः। तेभ्यः॑। दश॑। प्राचीः॑। दश॑। द॒क्षि॒णाः। दश॑। प्र॒तीचीः॑। दश॑। उदी॑चीः। दश॑। ऊ॒र्ध्वाः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो विमानादि यानों में बैठ के (अन्तरिक्षे) आकाश में विचरते हैं (येषाम्) जिनके (वातः) वायु के तुल्य (इषवः) बाण हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हमारा किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं में व्याप्त हुए हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषियों को (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे और हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) अप्रीति करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिडाल के मुख में मूषे के समान पीड़ा में (दध्मः) डालें ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य आकाश में रहनेवाले शुद्ध कारीगरों का सेवन करते हैं, उनको ये सब ओर से बलवान् करके शिल्पविद्या की शिक्षा करें ॥६५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(नमः) (अस्तु) (रुद्रेभ्यः) (ये) (अन्तरिक्षे) आकाशे (येषाम्) (वातः) (इषवः) (तेभ्यः०) इति पूर्ववत् ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये विमानादिषु स्थित्वाऽन्तरिक्षे विचरन्ति, येषां वात इवेषवः सन्ति, तेभ्यो रुद्रेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, ये दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोर्ध्वा आशा व्याप्तवन्तस्तेभ्यो नमोऽस्तु, ते नोऽवन्तु, ते नो मृडयन्तु, ते वयं च यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे वशे दध्मः ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या आकाशस्थान् शुद्धान् शिल्पिनः सेवन्ते, तानेते सर्वतो बलयित्वा शिल्पविद्याः शिक्षेरन् ॥६५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अंतरिक्षात वायूयानाद्वारे रक्षण करणाऱ्या कारागिरांना सर्व प्रकारे बलवान करून शिल्पविद्येचे शिक्षण द्यावे.