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नमो॑ऽस्तु रु॒द्रेभ्यो॒ ये दि॒वि येषां॑ व॒र्षमिष॑वः। तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्दशोदी॑ची॒र्दशो॒र्ध्वाः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥६४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। अ॒स्तु॒। रु॒द्रेभ्यः॑। ये। दि॒वि। येषा॑म्। व॒र्षम्। इष॑वः। तेभ्यः॑। दश॑। प्राचीः॑। दश॑। द॒क्षि॒णाः। दश॑। प्र॒तीचीः॑। दश॑। उदी॑चीः। दश॑। ऊ॒र्ध्वाः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥६४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:64


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो सर्वहितकारी (दिवि) सूर्यप्रकाशादि के तुल्य विद्या और विनय में वर्त्तमान हैं (येषाम्) जिनके (वर्षम्) वृष्टि के समान (इषवः) बाण हैं (तेभ्यः) उन (रुद्रेभ्यः) प्राणादि के तुल्य वर्त्तमान पुरुषों के लिये हम लोगों का किया (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो जो (दश) दश प्रकार (प्राचीः) पूर्व (दश) दश प्रकार (दक्षिणाः) दक्षिण (दश) दश प्रकार (प्रतीचीः) पश्चिम (दश) दश प्रकार (उदीचीः) उत्तर और (दश) दश प्रकार (ऊर्ध्वाः) ऊपर की दिशाओं को प्राप्त होते हैं (तेभ्यः) उन सर्वहितैषी राजपुरुषों के लिये हमारा (नमः) अन्नादि पदार्थ (अस्तु) प्राप्त हो, जो ऐसे पुरुष हैं (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें (ते) वे हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) अप्रीति करें (च) और (यः) जो (नः) हम को (द्वेष्टि) दुःख दे (तम्) उसको (एषाम्) इन वायुओं की (जम्भे) बिलाव के मुख में मूषे के समान पीड़ा में (दध्मः) डालें ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे वायुओं के सम्बन्ध से वर्षा होती है, वैसे जो सर्वत्र अधिष्ठित हों, वे वीर पुरुष पूर्वादि दिशाओं में हमारे रक्षक हों, हम लोग जिस को विरोधी जानें, उसको सब ओर से घेर के वायु के समान बाँधें ॥६४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(नमः) सत्क्रिया (अस्तु) भवतु (रुद्रेभ्यः) प्राणेभ्य इव वर्त्तमानेभ्यः (ये) (दिवि) सूर्यप्रकाशादाविव विद्याविनये वर्त्तमाना वीराः (येषाम्) (वर्षम्) वृष्टिरिव (इषवः) बाणाः (तेभ्यः) (दश) (प्राचीः) पूर्वा दिशः (दश) (दक्षिणाः) (दश) (प्रतीचीः) पश्चिमाः (दश) (उदीचीः) उत्तराः (दश) (ऊर्ध्वाः) उपरिस्थाः (तेभ्यः) (नमः) अन्नादिकम् (अस्तु) (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) रक्षन्तु (ते) (नः) अस्मान् (मृडयन्तु) सुखयन्तु (ते) (यम्) (द्विष्मः) अप्रीतिं कुर्याम् (यः) (च) (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) न प्रीणयति (तम्) (एषाम्) वायूनाम् (जम्भे) मार्जारमुखे मूषक इव पीडायाम् (दध्मः) निक्षिपाम ॥६४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये रुद्रा दिवि वर्त्तन्ते येषां वर्षमिषवस्तेभ्यो रुद्रेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, ये दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः प्राप्नुवन्ति तेभ्यो रुद्रेभ्योऽस्माकं नमोऽस्तु, य एवंभूतास्ते नोऽवन्तु, ते नो मृडयन्तु, ते वयं यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - यथा वायूनां सकाशाद् वर्षा जायन्ते, तथा ये सर्वत्राधिष्ठातारः स्युस्ते वीराः पूर्वादिषु दिक्ष्वस्माकं रक्षकाः सन्तु, वयं यं विरोधिनं जानीमस्तं सर्वत आवृत्य वायुवद् बन्धयेमेति ॥६४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वायूमुळे जशी सर्वत्र वृष्टी होते तसे सर्वत्र वीर पुरुषांनी आमचे रक्षण करावे व जे विरोधी असतील त्यांना वायू जसा सगळीकडून घेरतो तसे बंधित करावे.