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शि॒वेन॒ वच॑सा॒ त्वा॒ गिरि॒शाच्छा॑ वदामसि। यथा॑ नः॒ सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्म सु॒मना॒ऽअस॑त् ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शि॒वेन॑। वच॑सा। त्वा॒। गिरि॒शेति॒ गिरि॑ऽश। अच्छ॑। व॒दा॒म॒सि॒। यथा॑। नः॒। सर्व॑म्। इत्। जग॑त्। अ॒य॒क्ष्मम्। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अस॑त् ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वैद्य का कृत्य यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गिरिश) पर्वत वा मेघों में सोनेवाले रोगनाशक वैद्यराज ! तू (सुमनाः) प्रसन्नचित्त होकर आप (यथा) जैसे (नः) हमारा (सर्वम्) सब (जगत्) मनुष्यादि जङ्गम और स्थावर राज्य (अयक्ष्मम्) क्षय आदि राजरोगों से रहित (असत्) हो वैसे (इत्) ही (शिवेन) कल्याणकारी (वचसा) वचन से (त्वा) तुझ को हम लोग (अच्छ वदामसि) अच्छा कहते हैं ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुष वैद्यकशास्त्र को पढ़ पर्वतादि स्थानों की ओषधियों वा जलों की परीक्षा कर और सब के कल्याण के लिये निष्कपटता से रोगों को निवृत्त करके प्रिय वाणी से वर्त्ते, उस वैद्य का सब लोग सत्कार करें ॥४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ चिकित्सककृत्यमाह ॥

अन्वय:

(शिवेन) कल्याणकारकेण (वचसा) वचनेन (त्वा) त्वाम् (गिरिश) यो गिरिषु पर्वतेषु मेघेषु वा शेते तत्सम्बुद्धौ (अच्छ) सम्यक्। निपातस्य च [अष्टा०६.३.१३६] इति दीर्घः। (वदामसि) वदेम (यथा) (नः) अस्माकम् (सर्वम्) (इत्) एव (जगत्) मनुष्यादिकं जङ्गमं राज्यम् (अयक्ष्मम्) यक्ष्मादिरोगरहितम् (सुमनाः) शोभनम् मनो यस्य सः (असत्) स्यात् ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गिरिश रुद्र वैद्यराज ! सुमनास्त्वं यथा नः सर्वं जगदयक्ष्ममसत् तथेच्छिवेन वचसा त्वा वयमच्छ वदामसि ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यो वैद्यकशास्त्रमधीत्य पर्वतादिषु स्थिता ओषधीरपो वा सुपरीक्ष्य सर्वेषां कल्याणाय निष्कपटित्वेन रोगान् निवार्य्य प्रियस्वरूपया वाचा वर्त्तेत तं वैद्यं सर्वे सत्कुर्युः ॥४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणूस वैद्यकशास्त्राचे अध्ययन करून पर्वतावरील औषधांची किंवा पाण्याची परीक्षा करून निष्कपटीपणे सर्वांच्या कल्याणासाठी वापरतो व रोग दूर करतो आणि मधुरही बोलतो त्या वैद्याचा सर्व लोकांनी सत्कार करावा.