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त्रि॒वृद॑सि त्रि॒वृते॑ त्वा प्र॒वृद॑सि प्र॒वृते॑ त्वा वि॒वृद॑सि वि॒वृते॑ त्वा स॒वृद॑सि स॒वृते॑ त्वाक्र॒मोऽस्याक्र॒माय॑ त्वा संक्र॒मोऽसि संक्र॒माय॑ त्वोत्क्र॒मोऽस्युत्क्र॒माय॒ त्वोत्क्रा॑न्तिर॒स्युत्क्रा॑न्त्यै॒ त्वाऽधिपतिनो॒र्जोर्जं॑ जिन्व ॥९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृऽत्। अ॒सि॒। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृते॑। त्वा॒। प्र॒वृदिति॑ प्र॒ऽवृत्। अ॒सि॒। प्र॒वृत॒ इति॑ प्र॒ऽवृते॑। त्वा॒। वि॒वृदिति॑ वि॒ऽवृत्। अ॒सि॒। वि॒वृत॒ इति॑ वि॒ऽवृते॑। त्वा॒। स॒वृदिति॑ स॒ऽवृत्। अ॒सि॒। स॒वृत॒ इति॑ स॒ऽवृते॑। त्वा॒। आ॒क्र॒म इत्या॑ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। आ॒क्र॒मायेत्या॑ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। सं॒क्र॒म इति॑ सम्ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। सं॒क्र॒मायेति॑ सम्ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। उ॒त्क्र॒म इत्यु॑त्ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। उ॒त्क्र॒मायेत्यु॑त्ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। उत्क्रा॑न्ति॒रित्युत्ऽक्रा॑न्तिः। अ॒सि॒। उत्क्रा॑न्त्या॒ इत्युत्ऽक्रा॑न्त्यै। त्वा॒। अधि॑पति॒नेत्यधि॑ऽपतिना। ऊ॒र्जा। ऊर्ज॑म्। जि॒न्व ॥९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! जो तू (त्रिवृत्) सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सह वर्त्तमान अव्यक्त कारण का जानने हारा (असि) है, उस (त्रिवृते) तीन गुणों से युक्त कारण के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (प्रवृत्) जिस कार्यरूप से प्रवृत्त संसार का ज्ञाता (असि) है, उस (प्रवृते) कार्यरूप संसार को जानने के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (विवृत्) जिस विविध प्रकार से प्रवृत्त जगत् का उपकारकर्त्ता (असि) है, उस (विवृते) जगदुपकार के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (सवृत्) जिस समान धर्म के साथ वर्त्तमान पदार्थों का जानने हारा (असि) है, उस (सवृते) साधर्म्य पदार्थों के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (आक्रमः) अच्छे प्रकार पदार्थों के रहने के स्थान अन्तरिक्ष का जाननेवाला (असि) है, उस (आक्रमाय) अन्तरिक्ष को जानने के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (संक्रमः) सम्यक् पदार्थों को जानता (असि) है, उस (संक्रमाय) पदार्थ-ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (उत्क्रमः) ऊपर मेघमण्डल की गति का ज्ञाता (असि) है, उस (उत्क्रमाय) मेघमण्डल की गति जानने के लिये (त्वा) तुझ को तथा हे स्त्रि ! जो तू (उत्क्रान्तिः) सम-विषम पदार्थों के उल्लङ्घन के हेतु विद्या को जानने हारी (असि) है, उस (उत्क्रान्त्यै) गमनविद्या के जानने के लिये (त्वा) तुझ को सब प्रकार ग्रहण करते हैं। (अधिपतिना) अपने स्वामी के सह वर्त्तमान तू (ऊर्जा) पराक्रम से (ऊर्जम्) बल को (जिन्व) प्राप्त हो ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पृथिवी आदि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों के जाने विना कोई भी विद्वान् नहीं हो सकता। इसलिये कार्य कारण दोनों को यथावत् जान के अन्य मनुष्यों के लिये उपदेश करना चाहिये। जैसे अध्यक्ष के साथ सेना विजय प्राप्त करती है, वैसे ही अपने पति के साथ स्त्री सब दुःखों को जीत लेती है ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(त्रिवृत्) यत् त्रिभिः सत्त्वरजस्तमोगुणैः सह वर्त्तते तस्याव्यक्तस्य वेत्ता (असि) (त्रिवृते) (त्वा) त्वाम् (प्रवृत्) यत्कार्य्यरूपेण प्रवर्त्तते तस्य ज्ञाता (असि) (प्रवृते) (त्वा) (विवृत्) यद्विविधैराकारैर्वर्त्तते तज्जगदुपकर्त्ता (असि) (विवृते) (त्वा) (सवृत्) यः समानेन धर्मेण सह वर्त्तते तस्य बोधकः (असि) (सवृते) (त्वा) (आक्रमः) समन्तात् क्रमन्ते पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्य विज्ञापकः (असि) (आक्रमाय) (त्वा) (संक्रमः) सम्यक् क्रमन्ते यस्मिँस्तस्य (असि) (संक्रमाय) (त्वा) (उत्क्रमः) उदूर्ध्वं क्रमः क्रमणं यस्मात् तस्य (असि) (उत्क्रमाय) (त्वा) (उत्क्रान्तिः) उत्क्राम्यन्त्युल्लङ्घयन्ति समान् विषमान् देशान् यया गत्या तद्विद्याज्ञात्री (असि) (उत्क्रान्त्यै) (त्वा) (अधिपतिना) अधिष्ठात्रा (ऊर्जा) पराक्रमेण (ऊर्जम्) बलम् (जिन्व) प्राप्नुहि ॥९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यस्त्वं त्रिवृदसि तस्मै त्रिवृते त्वा, यत्प्रवृदसि तस्मै प्रवृत्ते त्वा, यद्विवृदसि तस्मै विवृते त्वा, य आक्रमोऽसि तस्मा आक्रमाय त्वा, यः सवृदसि तस्मै सवृते त्वा, यः संक्रमोऽसि तस्मै संक्रमाय त्वा, य उत्क्रमोऽसि तस्मा उत्क्रमाय त्वा, योत्क्रान्तिरसि तस्या उत्क्रान्त्यै त्वा त्वामहं परिगृह्णामि। तेन मयाधिपतिना सह वर्त्तमाना त्वमूर्जोर्जं जिन्व ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि पृथिव्यादिपदार्थानां गुणकर्मस्वभावविज्ञानेन विना कश्चिदपि विद्वान् भवितुमर्हति तस्मात् कार्य्यकारणसंघातं यथावद्विज्ञायान्येभ्य उपदेष्टव्यो यथाऽध्यक्षेण सह सेना विजयं करोति तथा स्वस्वामिना सह स्त्री सर्वं दुःखं जयति ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणल्याखेरीज कोणीही विद्वान बनू शकत नाही. त्यासाठी कार्य व कारणभाव हे दोन्ही यथायोग्य जाणावेत व इतरांनाही बोध करून द्यावा.