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स॒हस्र॑स्य प्र॒मासि॑ स॒हस्र॑स्य प्रति॒मासि॑ स॒हस्र॑स्यो॒न्मासि॑ सा॒ह॒स्रोऽसि स॒हस्रा॑य त्वा ॥६५ ॥

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पद पाठ

स॒हस्र॑स्य। प्र॒मेति॑ प्र॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। उ॒न्मेत्यु॒त्ऽमा। अ॒सि॒। सा॒ह॒स्रः। अ॒सि॒। स॒हस्रा॑य। त्वा॒ ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् पुरुष वा विदुषी स्त्रि ! जिस कारण तू (सहस्रस्य) असंख्यात पदार्थों से युक्त जगत् के (प्रमा) प्रमाण यथार्थ ज्ञान के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य विशेष पदार्थों के (प्रतिमा) तोलनसाधन के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य स्थूल वस्तुओं के (उन्मा) तोलने की तुला के समान (असि) है, (साहस्रः) असंख्य पदार्थ और विद्याओं से युक्त (असि) है, इस कारण (सहस्राय) असंख्यात प्रयोजनों के लिये (त्वा) तुझ को परमात्मा व्यवहार में स्थित करे ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहाँ पूर्वमन्त्र से परमेष्ठी, सादयतु इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। तीन साधनों से मनुष्यों के व्यवहार सिद्ध होते हैं। एक तो यथार्थविज्ञान, दूसरा पदार्थ तोलने के लिये तोल के साधन बाट और तीसरा तराजू आदि। यह शिशिर ऋतु का वर्णन पूरा हुआ ॥६५ ॥ इस अध्याय में ऋतुविद्या का प्रतिपादन होने से इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये पञ्चदशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(सहस्रस्य) असंख्यपदार्थयुक्तस्य जगतः (प्रमा) प्रमाणं यथार्थविज्ञानम् (असि) (सहस्रस्य) असंख्यपदार्थविशेषस्य (प्रतिमा) प्रतिमीयन्ते परिमीयन्ते सर्वे पदार्था यया सा (असि) (सहस्रस्य) असंख्यातस्य स्थूलवस्तुनः (उन्मा) ऊर्ध्वं मिनोति यया तुलया तद्वत् (असि) (साहस्रः) सहस्रमसंख्याताः पदार्था विद्या वा विद्यन्ते यस्य सः (असि) (सहस्राय) असंख्यप्रयोजनाय (त्वा) त्वाम्। [अयं मन्त्रः शत०८.७.४.१० व्याख्यातः] ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् विदुषि वा यतस्त्वं सहस्रस्य प्रमेवासि सहस्रस्य प्रतिमेवासि सहस्रस्योन्मेवासि साहस्रोऽसि तस्मात् सहस्राय त्वा त्वां परमेष्ठी सत्ये व्यवहारे सादयतु ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वमन्त्रात् परमेष्ठी सादयत्विति पदद्वयमनुवर्त्तते। मनुष्याणां त्रिभिः साधनैर्व्यवहाराः सिध्यन्ति। एकं प्रमा यद्यथार्थविज्ञानम्, द्वितीया प्रतिमा यानि परिमाणसाधनानि पदार्थतोलनार्थानि, तृतीयमुन्मा तुलादिकं चेति ॥६५ ॥ इति शिशिरर्तोर्वर्णनम्। अत्रर्त्तुविद्याप्रतिपादनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील ‘परमेष्ठी’, ‘सादयतु’ या दोन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. तीन साधनांनी मानवी व्यवहार सिद्ध होतात-एक यथार्थ विज्ञान, दुसरे पदार्थांचे वजन करण्याचे माप व तिसरा तराजू. येथे शिशिर ऋतूचे वर्णन पूर्ण होते.