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ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न्दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वारो॑च॒ने दि॒वः ॥६० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ताः। अ॒स्य॒। सूद॑दोहस॒ इति॒ सूद॑ऽदोहसः। सोम॑म्। श्री॒ण॒न्ति॒। पृश्न॑यः। जन्म॑न्। दे॒वाना॑म्। विशः॑। त्रि॒षु। आ॒। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥६० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:60


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा प्रजा का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त (देवानाम्) विद्वानों के (जन्मन्) जन्म विषय में (पृश्नयः) पूछने हारी (सूददोहसः) रसोइया और कार्य्यों के पूर्ण करनेवाले पुरुषों से युक्त (त्रिषु) वेदरीति से कर्म, उपासना और ज्ञानों तथा (दिवः) सब के अन्तःप्रकाशक परमात्मा के (रोचने) प्रकाश में वर्त्तमान (विशः) प्रजा हैं, (ताः) वे (अस्य) इस सभाध्यक्ष राजा के (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रसों से युक्त भोजनीय पदार्थों को (आ) सब ओर से (श्रीणन्ति) पकाती हैं ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - प्रजापालक पुरुषों को चाहिये कि सब प्रजाओं को विद्या और अच्छी शिक्षा के ग्रहण में नियुक्त करें और प्रजा भी स्वयं नियुक्त हों। इस के विना कर्म, उपासना, ज्ञान और ईश्वर का यथार्थ बोध कभी नहीं हो सकता ॥६० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाधर्ममाह ॥

अन्वय:

(ताः) (अस्य) सभाध्यक्षस्य (सूददोहसः) सूदाः पाककर्त्तारो दोहसः प्रपूरकाश्च यासु ताः (सोमम्) सोमवल्याद्योषधिरसान्वितं पाकम् (श्रीणन्ति) पचन्ति (पृश्नयः) प्रष्ठ्यः (जन्मन्) जन्मनि (देवानाम्) विदुषाम् (विशः) या विशन्ति (त्रिषु) वेदरीत्या कर्मोपासनाज्ञानेषु (आ) (रोचने) प्रकाशने (दिवः) द्योतनात्मकस्य परमात्मनः ॥६० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - या विद्यासुशिक्षान्विता देवानां जन्मन् पृश्नयः सूददोहसस्त्रिषु दिवो रोचने च प्रवर्त्तमाना विशः सन्ति, ता अस्य सोममाश्रीणन्ति ॥६० ॥
भावार्थभाषाः - प्रजापतिभिः सर्वाः प्रजाः विद्यासुशिक्षाग्रहणे नियोजनीयाः, प्रजाश्च नियुञ्जन्तु। नह्येतेन विना कर्मोपासनाज्ञानेश्वराणां यथार्थो बोधो भवितुमर्हति ॥६० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेचे पालन करणाऱ्या राजाने सर्व प्रजेला विद्या प्राप्त करण्यासाठी उत्तम शिक्षणासाठी प्रेरणा द्यावी व प्रजेनेही त्याप्रमाणे शिक्षण घेण्यास प्रेरित व्हावे त्याखेरीज ज्ञान, कर्म, उपासना आणि ईश्वराचा बोध कधी होऊ शकत नाही.