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तप॑श्च तप॒स्य᳖श्च॑ शैशि॒रावृ॒तूऽअ॒ग्नेर॑न्तःश्ले॒षो᳖ऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। शै॒शि॒रावृ॒तूऽअ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम् ॥५७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तपः॑। च॒। त॒प॒स्यः᳖। च॒। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मे इती॒मे। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒सम्ऽवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में शिशिर ऋतु का वर्णन किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश्वर ! (मम) मेरी (ज्यैष्ठ्याय) ज्येष्ठता के लिये (तपः) ताप बढ़ाने का हेतु माघ महीना (च) और (तपस्यः) तापवाला फाल्गुन मास (च) ये दोनों (शैशिरौ) शिशिर ऋतु में प्रख्यात (ऋतू) अपने चिह्नों को प्राप्त करनेवाले सुखदायी होते हैं। आप जिनके (अग्नेः) अग्नि के भी (अन्तःश्लेषः) मध्य में प्रविष्ट (असि) हैं, उन दोनों से (द्यावापृथिवी) आकाश-भूमि (कल्पेताम्) समर्थ हों, (आपः) जल (ओषधयः) ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) समर्थ हों, (सव्रताः) एक प्रकार के नियमों में वर्त्तमान (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (पृथक्) अलग अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (ये) जो (समनसः) एक प्रकार के मन के निमित्तवाले हैं, वे (अग्नयः) विद्युत् आदि अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि के (अन्तरा) बीच में होनेवाले (शैशिरौ) शिशिर ऋतु के साधक (ऋतू) माघ-फाल्गुन महीनों को (अभिकल्पमानाः) समर्थ करते हैं, उन अग्नियों को (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य के तुल्य (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) ज्ञानपूर्वक प्रवेश करें। हे स्त्री-पुरुषो ! तुम दोनों (तया) उस (देवतया) पूजा के योग्य सर्वत्र व्याप्त जगदीश्वर देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान वर्त्तमान इन आकाश भूमि के तुल्य (ध्रुवे) दृढ़ (सीदतम्) स्थिर होओ ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सब ऋतुओं में ईश्वर से ही सुख चाहें। ईश्वर विद्युत् अग्नि के भी बीच व्याप्त है, इस कारण सब पदार्थ अपने-अपने नियम से कार्य में समर्थ होते हैं। विद्वान् लोग सब वस्तुओं में व्याप्त बिजुलीरूप अग्नियों के गुण-दोष जानें। स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में स्थिरबुद्धि होके शिशिर ऋतु के सुख को भोगें ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिशिरस्य ऋतोर्वर्णनमाह ॥

अन्वय:

(तपः) यस्तापहेतुः स माघो मासः (च) (तपस्यः) तपो घर्मो विद्यतेऽस्मिन् स फाल्गुनो मासः (च) (शैशिरौ) शिशिरर्त्तौ भवौ (ऋतू) स्वलिङ्गप्रापकौ (अग्नेः) (अन्तःश्लेषः) मध्यप्रवेशः (असि) (कल्पेताम्) (द्यावापृथिवी) (कल्पन्ताम्) (आपः) (ओषधयः) (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) पावकाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) (सव्रताः) समाननियमाः (ये) (अग्नयः) (समनसः) समानमनोनिमित्ताः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (इमे) (शैशिरौ) शिशिरर्त्तुसंपादकौ (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) सम्पादयन्तः (इन्द्रमिव) ऐश्वर्य्यमिव (देवाः) विद्वांसः (अभिसंविशन्तु) (तया) (देवतया) पूज्यतमया व्याप्तया ब्रह्माख्यया सह (अङ्गिरस्वत्) प्राणवत् (ध्रुवे) दृढे (सीदतम्) सीदतः। [अयं मन्त्रः शत०८.७.१.५-६ व्याख्यातः] ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ईश्वर ! मम ज्यैष्ठ्याय तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू सुखकारकौ भवतः। त्वं ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽसि, ताभ्यां द्यावापृथिवी कल्पेताम्, आप ओषधयश्च कल्पन्ताम्, सव्रता अग्नयः पृथक् कल्पन्ताम्। ये समनसोऽग्नय इमे द्यावापृथिवी अन्तरा शैशिरावृतू अभिकल्पमानाः सन्ति, तानिन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु। हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां तया देवतया सहाङ्गिरस्वद् वर्त्तमानो ध्रुवे द्यावापृथिवी इव सीदतम् ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्रत्यृतु सुखमीश्वरादेव याचनीयम्। ईश्वरस्य विद्युदन्तःप्रविष्टत्वात् सर्वे पदार्थाः स्वस्वनियमेन समर्था भवन्ति। विद्वांसः सर्वपदार्थगतविद्युदग्नीनां गुणदोषान् विजानन्तु। स्त्रीपुरुषौ गृहाश्रमे शैशिरं सुखं भुञ्जाताम् ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी सर्व ऋतूंमध्ये ईश्वराकडूनच सुखाची कामना करावी. ईश्वर विद्युतरूपी अग्नीमध्ये व्याप्त आहे. त्यामुळे सर्व पदार्थ आपापल्या नियमानुसार कार्य करण्यास समर्थ होतात, विद्वानांनी सर्व वस्तूंमध्ये व्याप्त असलेले विद्युतरूपी अग्नीचे गुणदोष जाणावे. स्त्री - पुरुषांनी गृहस्थाश्रमात स्थिर बुद्धीने राहावे व शिशिर ऋतूचे सुख भोगावे.