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उ॒भे सु॑श्चन्द्र स॒र्पिषो॒ दर्वी॑ श्रीणीषऽआ॒सनि॑। उ॒तो न॒ऽउत्पु॑पूर्या उ॒क्थेषु॑ शवसस्पत॒ऽइष॑ स्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र ॥४३ ॥

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पद पाठ

उ॒भे इत्यु॒भे। सु॒श्च॒न्द्र॒। सु॒च॒न्द्रेति॑ सुऽचन्द्र। स॒र्पिषः॑। दर्वी॒ इति॒ दर्वी॑। श्री॒णी॒षे॒। आ॒सनि॑। उ॒तो इत्यु॒तो। नः॒। उत्। पु॒पू॒र्याः॒। उ॒क्थेषु॑। श॒व॒सः॒। प॒ते॒। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:43


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुश्चन्द) सुन्दर आनन्ददाता अध्यापक पुरुष ! आप (सर्पिषः) घी के (दर्वी) चलाने पकड़ने की दो कर्छी से (श्रीणीषे) पकाने के समान (आसनि) मुख में (उभे) पढ़ने पढ़ाने की दो क्रियाओं को (आभर) धारण कीजिये। हे (शवसः) बल के (पते) रक्षकजन ! तू (उक्थेषु) कहने-सुनने योग्य वेदविभागों में (नः) हमारे (उतो) और (स्तोतृभ्यः) विद्वानों के लिये (इषम्) अन्नादि पदार्थों को (उत्पुपूर्याः) उत्कृष्टता से पूरण कर ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे ऋत्विज् लोग घृत को शोध कर्छी से अग्नि में होम कर और वायु तथा वर्षाजल को रोगनाशक करके सब को सुखी करते हैं, वैसे ही अध्यापक लोगों को चाहिये कि विद्यार्थियों के मन अच्छी शिक्षा से शोध कर उन को विद्यादान दे के आत्माओं को पवित्र कर सब को सुखी करें ॥४३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

(उभे) द्वे अध्ययनाध्यापनक्रिये (सुश्चन्द्र) शोभनश्चासौ चन्द्र आह्लादकारकश्च तत्सम्बुद्धौ (सर्पिषः) घृतस्य (दर्वी) ग्रहणाग्रहणसाधने (श्रीणीषे) पचसि (आसनि) आस्ये (उतो) अपि (नः) अस्मभ्यम् (उत्) (पुपूर्याः) पूर्णं कुर्य्याः (उक्थेषु) वक्तुं श्रोतुमर्हेषु वेदविभागेषु (शवसः) बलस्य (पते) पालक (इषम्) अन्नम् (स्तोतृभ्यः) विद्वद्भ्यः (आ) (भर) ॥४३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुश्चन्द्र ! त्वं सर्पिषो दर्वी श्रीणीष इवासन्युभे आ भर। हे शवसस्पते ! त्वमुक्थेषु नोऽस्मभ्यमुतो अपि स्तोतृभ्य इषं चोत्पुपूर्याः ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - यथर्त्विजो घृतं संशोध्य दर्व्याऽग्नौ हुत्वा वायुवृष्टिजले रोगनाशके कृत्वा सर्वान् सुखयन्ति। तथैवाध्यापका विद्यार्थिमनांसि सुशिक्षा संशोध्य तत्र विद्या हुत्वाऽऽत्मनः पवित्रीकृत्य सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुः ॥४३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याप्रमाणे ऋत्विज लोक घृत गाळून चिमट्याने तुपाचे भांडे धरून अग्नीत तूप घालून होम करतात व वायू आणि वृष्टी यांना रोगनाशक बनवितात आणि सर्वांना सुखी करतात तसे अध्यापकांनी विद्यार्थ्यांची मने चांगल्या शिक्षणाने संस्कारित करून विद्यादानाने त्यांच्या आत्म्यांना पवित्र करावे व सर्वांना सुखी करावे.