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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) बलवान् पुरुष के (यहो) सन्तान ! (जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त हुए (अग्ने) तेजस्वी विद्वान् आप अग्नि के तुल्य (गोमतः) प्रशस्त गौ और पृथिवी से युक्त (वाजस्य) अन्न के (ईशानः) स्वामी समर्थ हुए (अस्मे) हमारे लिये (महि) बड़े (श्रवः) धन को (धेहि) धारण कीजिये ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अच्छी रीति से उपयुक्त किया अग्नि बहुत धन देता है, ऐसा जानना चाहिये ॥३५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कीदृश इत्याह ॥
अन्वय:
(अग्ने) विद्वन् ! (वाजस्य) अन्नस्य (गोमतः) प्रशस्तधेनुपृथिवीयुक्तस्य (ईशानः) साधकः समर्थः (सहसः) बलवतः (यहो) सुसन्तान (अस्मे) अस्मभ्यम् (धेहि) (जातवेदः) जातं विज्ञानं यस्य सः (महि) महत् (श्रवः) धनम् ॥३५ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे सहसो यहो जातवेदोऽग्ने ! त्वमग्निरिव वाजस्य गोमत ईशानः सन्नस्मे महि श्रवो धेहि ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। साधुरीत्योपयुक्तोऽग्निः पुष्कलं धनं प्रयच्छतीति वेद्यम् ॥३५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उत्तम प्रकारे उपयोगात आणलेला अग्नी खूप धन देतो हे जाणले पाहिजे.