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स दु॑द्रव॒त् स्वा᳖हुतः स दु॑द्रव॒त् स्वा᳖हुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒वꣳराधो॒ जना॑नाम् ॥३४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः। सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः। सु॒ब्र॒ह्मेति॑ सु॒ऽब्रह्मा॑। य॒ज्ञः। सु॒शमीति॑ सु॒ऽशमी॑। वसू॑नाम्। दे॒वम्। राधः॑। जना॑नाम् ॥३४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:34


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (सः) वह अग्नि (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार बुलाये हुए मित्र के समान (दुद्रवत्) चलता है तथा (सः) वह (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार निमन्त्रण किये विद्वान् के तुल्य (दुद्रवत्) जाता है, (सुब्रह्मा) अच्छे प्रकार चारों वेदों के ज्ञाता (यज्ञः) समागम के योग्य (सुशमी) अच्छे शान्तिशील पुरुष के समान जो (वसूनाम्) पृथिवी आदि वसुओं और (जनानाम्) मनुष्यों का (देवम्) अभीप्सित (राधः) धनरूप है, उस अग्नि को तुम लोग उपयोग में लाओ ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वेगवान्, अन्य पदार्थों को वेग देनेवाला, शान्तिकारक, पृथिव्यादि पदार्थों का प्रकाशक अग्नि है, उसका विचार क्यों न करना चाहिये ॥३४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

(सः) अग्निः (दुद्रवत्) द्रवति (स्वाहुतः) सुष्ठु कृताह्वानः सखा (सः) (दुद्रवत्) गच्छति (स्वाहुतः) सुष्ठु निमन्त्रितो विद्वान् (सुब्रह्मा) सुष्ठुतया चतुर्वेदवित् (यज्ञः) सङ्गन्तुं योग्यः (सुशमी) सुष्ठु शमयितुमर्हः (वसूनाम्) पृथिव्यादीनाम् (देवम्) कमनीयम् (राधः) सुखसाधनं धनम् (जनानाम्) ॥३४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! स स्वाहुतः सखिवद् दुद्रवत् स स्वाहुतो विद्वानिव दुद्रवत्। सुब्रह्मा यज्ञः सुशमीव यो वसूनां जनानां च देवं राधोऽस्ति तं यूयं संप्रयुङ्ग्ध्वम् ॥३४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो वेगवानन्येभ्यो वेगप्रदः शान्तिकरः पृथिव्यादीनां प्रकाशकोऽग्निर्वत्तते स कथं न विज्ञेयः ॥३४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो अग्नी गतिमान असून इतर पदार्थांना वेग देणारा व शांत असणाऱ्या पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचा प्रकाशक आहे. तेव्हा त्याचा उपयोग करून घेण्याचा विचार का बरे करू नये?