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विश्व॑स्य दू॒तम॒मृतं॒ विश्व॑स्य दू॒तम॒मृत॑म्। स यो॑जतेऽअरु॒षा वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त् स्वा᳖हुतः ॥३३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑स्य। दू॒तम्। अ॒मृत॑म्। विश्व॑स्य। दू॒तम्। अ॒मृत॑म्। सः। यो॒ज॒ते॒। अ॒रु॒षा। वि॒श्वभो॑ज॒सेति॑ वि॒श्वऽभो॑जसा। सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः ॥३३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (विश्वस्य) सब भूगोलों के (दूतम्) तपानेवाले सूर्य्यरूप (अमृतम्) कारणरूप से अविनाशिस्वरूप (विश्वस्य) सम्पूर्ण पदार्थों को (दूतम्) ताप से जलानेवाले (अमृतम्) जल में भी व्यापक कारणरूप अग्नि को स्वीकार करूँ, वैसे (विश्वभोजसा) जगत् के रक्षक (अरुषा) रूपवान् सब पदार्थों के साथ वर्त्तमान है (सः) वह (योजते) युक्त करता है, जो (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार ग्रहण किया हुआ (दुद्रवत्) शरीरादि में चलता है (सः) वह तुम लोगों को जानना चाहिये ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (आहुवे) इस पद की अनुवृत्ति आती है तथा (विश्वस्य दूतममृतम्) इन तीन पदों की दो वार आवृत्ति से स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार के अग्नि का ग्रहण होता है। वह सब अग्नि कारणरूप से नित्य है, ऐसा जानना चाहिये ॥३३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सः कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

(विश्वस्य) समग्रस्य भूगोलसमूहस्य (दूतम्) परितापकं विद्युदाख्यमग्निम् (अमृतम्) कारणरूपेणाविनाशिस्वरूपम् (विश्वस्य) अखिलपदार्थजातस्य (दूतम्) परितापेन दाहकम् (अमृतम्) उदकेऽपि व्यापकं कारणम्। अमृतमित्युदकना० ॥ (निघं०१.१२) (सः) (योजते) युनक्ति। अत्र व्यत्ययेन शप् (अरुषा) रूपवता पदार्थसमूहेन (विश्वभोजसा) विश्वस्य पालकेन (सः) (दुद्रवत्) शरीरादौ द्रवति गच्छति। अत्र वर्तमाने लङ्। माङ्योगमन्तरेणाप्यडभावः (स्वाहुतः) सुष्ठु समन्ताद्धुत आदत्तः सन् ॥३३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहं विश्वस्य दूतममृतं विश्वस्य दूतममृतमग्निमाहुवे तथा विश्वभोजसाऽरुषा सर्वैः पदार्थैः सह वर्त्तते स योजते। यः स्वाहुतः सन् दुद्रवत्, स युष्माभिर्वेद्यः ॥३३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वमन्त्रादाहुव इति पदमनुवर्त्तते। विश्वस्य दूतममृतमिति द्विरावृत्त्या द्विविधस्य स्थूलसूक्ष्मस्याग्नेर्ग्रहणम्। स सर्वः कारणरूपेण नित्य इति वेद्यम् ॥३३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (अहुवे) या पदाची अनुवृत्ती होते व (विश्वस्य दूतममृतम्) या तीन पदांची दोन वेळा आवृत्ती होते. त्यावरून स्थूल व सूक्ष्म या दोन प्रकारच्या अग्नीचे ग्रहण होते तोच अग्नी कारणरूपाने नित्य असतो हे जाणले पाहिजे.