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त्वां चि॑त्रश्रवस्तम॒ हव॑न्ते वि॒क्षु ज॒न्तवः॑। शो॒चिष्के॑शं पुरुप्रि॒याग्ने॑ ह॒व्याय॒ वोढ॑वे ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। चि॒त्र॒श्र॒व॒स्त॒मेति॑ चित्रश्रवःऽतम। हव॑न्ते। वि॒क्षु। ज॒न्तवः॑। शो॒चिष्के॑शम्। शो॒चिःके॑श॒मिति॑ शो॒चिःऽके॑शम्। पु॒रु॒प्रि॒येति॑ पुरुऽप्रिय। अग्ने॑। ह॒व्याय॑। वोढ॑वे ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग अग्नि से क्या सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुप्रिय) बहुतों के प्रसन्न करने हारे वा बहुतों के प्रिय (चित्रश्रवस्तम) आश्चर्य्यरूप अन्नादि पदार्थों से युक्त (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (विक्षु) प्रजाओं में (हव्याय) स्वीकार के योग्य अन्नादि उत्तम पदार्थों को (वोढवे) प्राप्ति के लिये जिस (शोचिष्केशम्) सुखानेवाली सूर्य की किरणों के तुल्य तेजस्वी (त्वाम्) आपको (जन्तवः) मनुष्य लोग (हवन्ते) स्वीकार करते हैं, उसी को हम लोग भी स्वीकार करते हैं ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को योग्य है कि जिस अग्नि को जीव सेवन करते हैं, उस से भार पहुँचाना आदि कार्य भी सिद्ध किया करें ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरग्निना किं साध्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(त्वाम्) (चित्रश्रवस्तम) चित्राण्यद्भुतानि श्रवांस्यतिशयितान्यन्नानि वा यस्य (हवन्ते) स्वीकुर्वन्ति (विक्षु) प्रजासु (जन्तवः) जनाः (शोचिष्केशम्) शोचिषः केशाः सूर्य्यस्य रश्मय इव तेजांसि यस्य तम् (पुरुप्रिय) बहून् प्रीणाति बहूनां प्रियो वा तत्संबुद्धौ (अग्ने) विद्वन् (हव्याय) स्वीकर्त्तव्यमन्नादिपदार्थम्। अत्र सुब्व्यत्ययेन द्वितीयैकवचनस्य चतुर्थ्यैकवचनम् (वोढवे) वोढुम्। अत्र तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुप्रिय चित्रश्रवस्तमाग्ने ! विक्षु हव्याय वोढवे यं शोचिष्केशं त्वां जन्तवो हवन्ते, तं वयमपि हवामहे ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या यमग्निं जीवाः सेवन्ते, तेन भारवहनादीनि कार्य्याण्यपि साध्नुवन्तु ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याप्रमाणे अग्नीचा सगळे लोक अंगीकार करतात त्या अग्नीकडून माणसांनी भारवहनाचे कार्य करून घ्यावे.