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जन॑स्य गो॒पाऽअ॑जनिष्ट॒ जागृ॑विर॒ग्निः सु॒दक्षः॑ सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। घृ॒तप्र॑तीको बृह॒ता दि॑वि॒स्पृशा॑ द्यु॒मद्विभा॑ति भर॒तेभ्यः॒ शुचिः॑ ॥२७ ॥

पद पाठ

जन॑स्य। गो॒पाः। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। जागृ॑विः। अ॒ग्निः। सु॒दक्ष॒ इति॑ सु॒ऽदक्षः॑। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से। घृ॒तप्र॑तीक॒ इति॑ घृ॒तऽप्र॑तीकः। बृ॒ह॒ता। दि॒वि॒स्पृशेति॑ दिवि॒ऽस्पृशा॑। द्यु॒मदिति॑ द्यु॒ऽमत्। वि। भा॒ति॒। भ॒र॒तेभ्यः॑। शुचिः॑ ॥२७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:27


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (जनस्य) उत्पन्न हुए संसार का (गोपाः) रक्षक (जागृविः) जानने रूप स्वभाववाला (सुदक्षः) सुन्दर बल का हेतु (घृतप्रतीकः) घृत से बढ़ने हारा (शुचिः) पवित्र (अग्निः) बिजुली (नव्यसे) अत्यन्त नवीन (सुविताय) उत्पन्न करने योग्य ऐश्वर्य के लिये (अजनिष्ट) प्रकट हुआ है और (बृहता) बड़े (दिविस्पृशा) प्रकाश में स्पर्श से (भरतेभ्यः) सूर्यों से (द्युमत्) प्रकाशयुक्त हुआ (विभाति) शोभित होता है, उस को तुम लोग जानो ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो ऐश्वर्य्यप्राप्ति का विशेष कारण सृष्टि के सूर्यों का निमित्त बिजुली रूप तेज है, उसको जान के उपकार लिया करें ॥२७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

(जनस्य) जातस्य (गोपाः) रक्षकः (अजनिष्ट) जातः (जागृविः) जागरूकः (अग्निः) विद्युत् (सुदक्षः) सुष्ठुबलः (सुविताय) उत्पादनीयायैश्वर्य्याय (नव्यसे) अतिशयेन नवीनाय। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति ईलोपः (घृतप्रतीकः) प्रतीतिकरं जलमाज्यं वा यस्य सः (बृहता) महता (दिविस्पृशा) दिवि प्रकाशे स्पृशति येन तेन (द्युमत्) द्यौः प्रकाशोऽस्त्यस्मिन् तद्वत् (वि) (भाति) (भरतेभ्यः) आदित्येभ्यः। भरत आदित्यः ॥ (निघं०८.१३) (शुचिः) पवित्रः ॥२७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो जनस्य गोपा जागृविः सुदक्षो घृतप्रतीकः शुचिरग्निर्नव्यसे सुवितायाऽजनिष्ट, बृहता दिविस्पृशा भरतेभ्यो द्युमद्विभाति, तं यूयं विजानीत ॥२७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यदैश्वर्यप्राप्तेरसाधारणं निमित्तं सृष्टिस्थानां सूर्याणां कारणं विद्युत्तेजस्तद्विज्ञायोपयोक्तव्यम् ॥२७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या सृष्टीत सूर्याच्या रूपाने जे विद्युतरूपी तेज प्रकट होते ते ऐश्वर्यप्राप्तीचे विशेष कारण आहे. हे माणसांनी जाणले पाहिजे व त्याचा लाभ करून घेतला पाहिजे.